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________________ ११. प्रज्ञा-प्रदीप आचार्य जय तेरापथ के चतुर्थ अधिनायक जयाचार्य थे। वे प्रखर प्रतिभासम्पन्न थे। उन्होने जैन श्रुत की विलक्षण उपासना की एव आगमपरक जैन माहित्य की अभिनव वृद्धि की। आचार्यजय का जन्म वी०नि० २३३० (वि० १९६०)को ओसवाल वशीय गोलछा परिवार मे हुआ था। वह पूरा परिवार जैन सस्कारो से ओत-प्रोत था। उनकी बुआ अजवू जी ने पहले ही भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली थी। सस्कारो की बात है जयाचार्य सात वर्ष के थे तभी उन्होने दीक्षा लेने की मन में ठान ली। कभी-कभी वे झोली में पात्रियो के स्थान पर कटोरिया रख गोचरी जाने का अभिनय भी किया करते थे । जयपुर में आचार्य भारीमाल जी के उपपात मे उन्होने पच्चोस वोल, चर्चा, तेरह द्वार आदि अनेक ग्रन्थो को कठान कर साधु जीवनोचित भूमिका पूर्णत निर्माण कर ली थी। उनका दीक्षा सस्कार तेरापथ के तृतीय आचार्य ऋषिराय महाराज (मुनि अवस्था मे) के हाथ से हुआ। उस समय जयाचार्य की अवस्था मान नौ वर्ष की थी। हेमराज जी स्वामी तेरापथ के महान् आगम विज्ञ सन्त थे। उनके पास -जयाचार्य ने वहुत लम्बे समय तक प्रशिक्षण पाया तथा उनके सम्पूर्ण ज्ञान-सिन्धु को वे अगस्त्य ऋपि की तरह पी गए थे। जयाचार्य की प्रतिभा को प्रकृति का वरदान था। ग्यारह वर्ष की अवस्था मे उन्होने 'सत गुण माला' का निर्माण किया और अठारह वर्ष की आयु मे पन्नवणा सूत्र जैसे अन्य का राजस्थानी भाषा मे पद्यानुवाद कर डाला। नाहस और बुद्धि ये दो गुण न दिए जाते है और न लिए जाते हैं। इनका जन्म, जन्म के साथ ही होता है । जयाचार्य के पास एक ओर अतुल वुद्धि सम्पदा थी तो दूसरी ओर साहस भी उनके हृदय मे भरा था। . द्वितीयाचार्य भारीमाल जी द्वारा अपने उत्तराधिकारी के रूप में दो नामो का लिखित उल्लेख किए जाने पर जयाचार्य ने ही पूज्यश्री के पास पहुंचकर एक नाम रखने का साहस भरा निवेदन किया था। जयाचार्य को उस समय अवस्था छोटी ही थी पर उनकी विनम्र प्रार्थना मे शतवर्षीय वृद्धावस्या का-सा गहरा अनुभव
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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