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________________ ३६४ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य साधना का प्रमुख अग बन गया था। दिल्ली, आगरा, पजाब, मालवा एव राजस्थान उनके प्रमुख विहार-क्षेत्र, स्वधर्म प्रचार-क्षेत्र थे। बीकानेर मे सर्वप्रथम धार्मिक वीजवपन का श्रेय स्थानकवासी परम्परा की दृष्टि से उन्हे है। ___आचार्य जयमल्ल जी तपस्वी थे, धर्म-प्रचारक थे एव साहित्यकार भी। उनके जीवन मे तप साधना एव श्रुतसाधना का अनुपम योग था। उनकी माहित्यरचना सरस एव सजीव थी। जिस किसी विषय को उठाया उसका मुक्त भाव से विवेचन किया है। स्तवनपधान, उपदेशप्रधान एव जीवन-चरित्रप्रधान गीतिकाओ से गुम्फित जयवाणी आचार्य जयमल्ल जी की विविध रचनाओ का सकलन तेरापथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के क्रान्तिकारी विचारो के वे प्रवल समर्थक थे । आचार्य भिक्षु ने स्थानकवासी परम्परा मे दीक्षा आचार्य रुघनाथ जी के पास ग्रहण की थी । आचार्य जयमल्ल जी तथा आचार्य रुधनाथ जी गुरु भाई थे। दोनो मे आचार्य रुघनाथ जी वडे थे । अत आचार्य भिक्षु के आचार्य जयमल्ल जी चाचा गुरु थे। स्थानकवासी सघ से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने के बाद भी आचार्य भिक्षु से जयमल्ल जी का कई बार सौहार्दपूर्ण मिलन हुआ। शास्त्रीय आधार पर चिन्तनमनन भी चला। विचार-सरिता की दो धाराए अत्यधिक निकट आ गयी थी पर किसी परिस्थितिवश वे एक न हो पायी। आचार्य जयमल्ल जी की हार्दिक सहानुभूति उनके साथ बनी रही। तेरापथ के द्वितीय आचार्य भारमल जी स्वामी के पिता किसनोजी कई दिन आचार्य भिक्षु के पास रहे। किसनोजी की प्रकृति कठोर थी। सघर्षमय स्थिति में उनका निभ पाना कठिन था। तेरापथ सघ की नवीन दीक्षा ग्रहण करते समय आचार्य भिक्ष ने जयमल्ल जी को उन्हे सौप दिया था। जयमल्ल जी द्वारा भी उनका सहर्ष स्वीकरण प्रकारान्तर से आचार्य भिक्षु के प्रति सहानुभूति का ही एक रूप था। प्रस्तुत घटना का उल्लेख जयमल्ल जी के शब्दो मे इस प्रकार हुआ है-- "भीखण जी वडे चतुर व्यक्ति है, उन्होने एक ही काम से तीन घरो मे 'वधामणा' कर दिया। हमने समझा कि एक शिष्य बढ गया, किमनो जी ने समझा कि स्थान जम गया और स्वय भीखण जी ने समझा कि चलो, वला टल गयी।" आचार्य जयमल्ल जी की प्रभावना के कारण उनका सम्प्रदाय जयमल सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनके उत्तराधिकारी आचार्य परम्परा मे क्रमश रायचन्द जी, आसकरण जी, शवलदास जी, हीराचन्द जी, किस्तूरचन्द जी आदि आचार्यों ने कुशलतापूर्वक उनके सघ का नेतृत्व किया। वद्धावस्था मे आचार्य जयमल्ल जी का सानिध्य तेरह वर्ष तक नागौरवासियों
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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