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________________ ७ दृढप्रतिज्ञ आचार्य धर्मदास जी धर्म सुधारक आचार्य धर्मदासजी सघ के कुशल सस्थापक थे । वाईस सम्प्रदाय सघ की नीव उन्होने डाली। वे अहमदावाद जिलान्तर्गत सरखेम गाव के थे और जीवनदास भावसार के पुत्र थे। घर का वातावरण धार्मिक सम्कारो से ओतप्रोत था। वालक का नाम भी धर्मदास रखा। धर्मदास धर्म का सुदृढ उपासक बना। लोकागच्छ के विद्वान् यति तेजसिंह जी से बालक ने धर्म की प्राथमिक शिक्षा पायी। धर्म का शुद्ध रूप प्राप्त करने की उसमे आन्तरिक जिज्ञासा जागृत हुई। इसी हेतु से बालक ने अनेक व्यक्तियो से सम्पर्क साधा। श्रावक कल्याणीजी के साहचर्य से दो वर्ष तक पोतिया-बन्ध धर्म की साधना की । ऋपिलव जी और धर्मसिंह से भी धार्मिक चर्चाए हुई पर बालक को कही सन्तोष नही हुआ। साहस का सम्बन्ध कभी आस्था के साथ जुड़ा हुआ नहीं है। वालक की अवस्था करीब सोलह वर्ष की ही थी, पर उसमे सोचने-समझने और कार्य करने की उन्मुक्त शक्ति प्रबल वेग धारण कर रही थी। माता-पिता का आदेश प्राप्त कर वी० नि० २१७० (वि० १७००) मे अदम्य उत्माह के साथ वालक ने सात व्यक्तियो के साथ स्वय जैन मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। धर्मदास मुनि को प्रथम भिक्षा मे एक कुम्भकार के घर से भस्म प्राप्त हुई। यह शुभ शकुन था। भस्म हवा के साथ उडी। इसी तरह धर्मदास मुनि की धर्मोपदेशना भी विस्तार पा गयी। धर्म सघ की बहुत वृद्धि हुई । निन्यानवे व्यक्तियो ने उनके पास दीक्षा ग्रहण की। उनको वी० नि० २१६१ (वि० १७२१) मे सघ ने आचार्य पद से विभूपित किया। वे उग्र विहारी, तीव्र तपस्वी, ज्ञानी, ध्यानी और स्वाध्यायी आचार्य थे। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ग्वालियर के महाराज उनके परम भक्त बने । उन्होने वी० नि० २२३४ (वि० १७६४) आपाढ शुक्ला सप्तमी के दिन शिकार और मास-मदिरा का सर्वथा परित्याग कर दिया। इससे जैन धर्म की महती प्रभावना हुई। आचार्य धर्मदासजी के निन्यानवे शिष्य थे। वे लम्बे समय तक धरा पर धर्म की प्रभावना करते रहे। आचार्य धर्मदास जी धर्म के लिए अपने प्राणो की
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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