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________________ ३५५ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य के कारण किसी व्यक्यि ने उनका प्राणान्त कर दिया था । ऋषिलव जी अत्यन्त गम्भीर और क्षमाशील आचार्य थे। उन्होने इस हृदयविदारक दुर्घटना को समता से सहन किया। किसी प्रकार का प्रतिकार उन्होने नही किया । उन्नति को देखकर बुरहानपुर मे ईर्ष्यावश किसी ने उनको विष-मिश्रित मोदक का दान दिया । वेले ( दो दिन का व्रत ) के पारणे मे उन्होने भिक्षा मे प्राप्त विष मिश्रित मोदक को खाया। उनका मन मिचलाने लगा। तीव्र वेदना की अनुभूति होने लगी । उन्हे ज्ञात हो गया -- किसी ने मुझे भोजन मे अवश्य जहर दिया है । सोम जी ऋषि से उन्होने कहा था- "पता नही मैं कव अचेत हो जाऊ । जीवन का कोई विश्वाम नही है ।" समताभाव से घोर वेदना को सहते हुए ऋषिलव जी ने अनशन स्वीकार कर लिया । परम समाधि मे उनका स्वर्गवास हुआ । सोम जी ऋषि उनके सफल उत्तराधिकारी बने । गुजरात की खात सम्प्रदाय और दक्षिण की ऋषि सम्प्रदाय ऋषिलव जी की शाखाए मानी गयी है । स्थानकवासी सम्प्रदाय मे आगमो का हिन्दी अनुवाद करने वाले अमोलक ऋषि जी ऋषिलव जी की परम्परा के थे ।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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