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________________ २ -३ वाद-कुशल आचार्य विजयसेन और विजयदेव ___ भाचार्य विजयमेन होगविजय जी के उत्तराधिकारी थे । वाद-कुपन आनार्यों मे उनको आदरपूर्ण स्थान प्राप्त था। एक बार भूषण नामक विद्वान् के साथ चिन्तामणि मिश्र आदि विद्वानो के समक्ष नूरत मे उनका वाद-विवार हुमा। आचार्य विजयनेन ने उसे बुद्धिवल मे निरुत्तर फर दिया था। योग शास्त्र के एक श्लोक के नात सो अर्थ बताकर सबको चमत्कृत कर देने वाली घटना उन्हीके इतिहाम के माय मयुक्त है । एक वार आचार्य विजयसेन मम्राट अकबर के आमन्त्रण पर हीरविजय जी के आदेश से लाहौर पहुचे और अपनी उपदेशधारा से नम्राट अकबर को मत्यधिक प्रभावित किया। इसी अवमर पर मम्राट अकबर ने सूरि जी को 'कलि सरस्वती' की उपाधि प्रदान कर उनका सम्मान बढाया था। माहित्य क्षेत्र मे 'सुमित्र नास' नामक ग्रन्य की रचना की। हीरविजयजी के बाद विजयसेन सूरि ने अपने धर्म-सघ का सफल नेतृत्व किया और वादशाहो पर भी अपना धार्मिक प्रभाव वैमा ही बनाये रखा। जहागीर को प्रतिवोध देने वाले विजयदेव विजयसेन के उत्तराधिकारी थे। जहागीर के द्वारा विजयदेव को 'जहागीर महात्मा' की उपाधि प्राप्त थी। उदयपुर नरेश जगतसिंह पर उनका विशेष प्रभाव था। धर्म-प्रचार में प्रवृत्त आचार्य विजयसेन का वी०नि० २१४१ (वि० स० १६७१) मे स्वर्गवास हुआ था। ___ गुरु के नाम को उजागर करने वाले सुयोग्य शिष्य होते हैं। आचार्य हीरविजय जी के कई शिष्य थे। उनमे गुरु के यश को अधिक विस्तार देने वाले शिष्य विजयसेन व विजयदेव थे। बुद्धि-वैभव से उन्होने मुगल शासन-काल मे भी सुख्याति अजित की। तपागच्छ की परम्परा के प्रभावक आचार्यों की शृखला मे उनका नाम आदर के साथ स्मरण किया जाता है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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