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________________ ४८ बौद्धिक-रत्न आचार्य रत्नाकर आचार्य रत्नाकर सूरि देवप्रभ सूरि के शिष्य थे । वे सरलात्मा और सौम्यवृत्तिक थे। उनके हृदय मे वैराग्य तरगिणी की अविरल धारा वहती थी। वी० नि० १७७८ (वि० स० १३०८) में उन्होने रत्नाकर पच्चीसी की रचना की। पच्चीस श्लोको का यह ग्रथ अत्यन्त मौलिक और महत्त्वपूर्ण है। इसके प्रत्येक श्लोक की पक्ति मे वैराग्यधारा का निर्झर छलक रहा है। पाठक इसे पढते'पढते आत्मालोचन के गम्भीर सागर मे डवकिया लेने लगता है। मानसिक दौर्बल्य की सूक्ष्म धडकन का बहुत सजीव चित्रण इम कृति मे हुआ है। प्रभु की पूजा, प्रार्थना और जापक्रिया मे मन के भावेग-उद्वेग घोर शन्नु हैं। इन्हे अभिव्यक्ति देते हुए सूरि जी ने लिखा है दग्धोग्निा क्रोधमयेन दण्टा, दुष्टेन लोभाख्यमहोरगेण । ग्रस्तोऽभिमानाजगरेण माया जालेन बद्धोऽस्मि कथ भजे त्वाम् ।। क्रोधाग्नि से सतप्त, लोभस्पी साप से दशित, मान रूपी अजगर से पीडित और मायाजाल से बंधा हुआ मैं कैसे आपका भजन करू ? मानसिक धूर्तता का आवरण दूर करते हुए लेखक लिखता है वैराग्यरग परवचनाय, धर्मोपदेशो जनरञ्जनाय । वादाय विद्याध्ययन च मे भूत्, किय[वे हास्यकर स्वमीश ॥ -हे ईश | मेरे पर वैराग्य का रग दूसरो को धोखा देने के लिए है। मेरा उपदेश जनरजनमान है। मेरा विद्याध्ययन विवाद के लिए सिद्ध हुआ है । इन वृत्तियो से मेरा जीवन कितना हास्यास्पद है। मैं आपको अपने विषय मे क्या चताऊ और कैसे वताक। ____ इस कृति मे उक्त श्लोको की भाति अन्य श्लोक भी बहुत प्रेरक है । बहुत-से साधक रत्नाकर पच्चीसी को कठान रखते हैं और प्रतिदिन इसका तन्मयता के
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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