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________________ चैत्य पुरुप आचार्य जिनचन्द्र ३२६ बी०नि० १६८७ (वि० १२१७) मे जिनपत मूरि को दीक्षित किया। क्षेमधर श्रेष्ठी ने उनके भवत थे। ___ मणिधारी आचार्य जिनचन्द्र ने अपनी इन मणि की सूचना मृत्यु से कुछ समय पूर्व अपने भक्तो को देकर सावधान किया था कि मेरे दाह-सस्कार से पहले ही मेरी मस्तक-मणि को पात्र मे ले लेना अन्यथा निसी योगी के हाथ मे यह अमूल्य मणि पहुच सकती है। वह मणि बहुत प्रभावक थी। ___ पणिधारी आचार्य जिनचन्द्र मूरि वी०नि० १६६३ (वि० १२२३) द्वितीय भाद्र शुक्ला चतुर्दशी को जनशन के साथ दिल्ली नगर में स्वर्गवासी हुए। जन और जनेतर समाज छब्बीस वर्ष तक ही एम चैत्य-पुरुष की महामणि का नान्निध्य प्राप्त कर मका था। वर्तमान में दिल्ली के मेहरोली नामक स्थान पर उनका चामत्कारिक स्तूप है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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