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________________ ४२ मनीषा-मेरु आचार्य मलयगिरि श्वेताम्बर परम्परा के समर्थ टीकाकार आचार्य मलयगिरि महाप्रज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे। वे अपने नाम से मलयगिरि और ज्ञान से भी मलयगिरि ही थे। उनकी प्रतिभा दर्पण की तरह स्वच्छ और निर्मल थी। वे लेखनी के धनी थे। उन्होने अपने जीवन मे बहुत अच्छी टीका-साहित्य-साधना की। टीका-साहित्य रचने की उनकी प्राजल प्रतिभा के साथ एक विचित्र घटना जुडी हुई है। एक बार आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य मलय गिरि व देवेन्द्रगणी-तीनो विद्याध्ययन हेतु एक साथ चले थे। रास्ते मे उन्होने अपने गुरु से प्राप्त सिंह चक्रमन की आराधना की। जिससे प्रसन्न होकर विमलेश्वर देव ने यथेप्सित वरदान मागने के लिए उनसे कहा । इस अवसर पर आचार्य हेमचन्द्र ने सात राजाओ को प्रतिवोध देने का व मलयगिरि ने आगम ग्रन्थो पर टीका लिखने का वर चाहा था । देव तथास्तु कहकर चला गया था । मलयगिरि उस दिन के बाद टीकासाहित्य की सघटना मे लगे और वे एक समर्थ टीकाकार के रूप मे युग के सामने आए। अकेले आचार्य मलयगिरि ने पच्चीस ग्रन्थो पर टीकाए लिखी है। उनमे उन्नीस टीकाए वर्तमान मे उपलब्ध है और छह अनुपलब्ध है। उपलब्ध टीकाओ का कुल परिमाण १९६६१२ के लगभग है । एक 'व्यवहार सूत्र वृत्ति' की श्लोकसख्या ३४००० है। इस टीका-साहित्य मे 'भगवती' जैसे विशालकाय ग्रन्थ पर और 'चन्द्र प्रजाप्ति' तथा 'सूर्य प्रज्ञप्ति' जैसे गभीर ग्रन्थ पर भी आचार्य जी की लेखनी अविरल गति से चली है। वे नन्दि, प्रज्ञापना, व्यवहार, जीवाभिगम, आवश्यक, वृहत्कल्प, राजप्रशनीय आदि विविध आगमो के टीकाकार थे। पच सग्रह, कर्मप्रकृति, धर्मसग्रहिणी, सप्तिका टीका जैसी कृतिया सैद्धातिक चर्चाओ से परिपूर्ण उनकी प्रौढ रचनाए है। टीकाओ की रहस्यमयी भाषा एक ओर पाठक वर्ग का वुद्धि-व्यायाम करने
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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