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________________ शान-पीयूष पाधोधि आचार्य हेमचन्द्र ३२३ योगशास्त्र उनको योगविपयक अनूठी कृति है। यशपाल ने इसे साधक की सुरक्षा के लिए वज्र कवच के समान माना है। योगशास्त्र को पटत ही शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव की स्मृति महल हो जाती है। इसी प्रकार अहंन्नीति, वीतराग स्तोत्र, नामेयनेमिद्विमन्धान, द्विज वचन उपेटा, परिशिष्ट पर्व आदि का निर्माण उनकी हैम-नी निर्मल प्रतिभा का विशिष्ट उपहार पा। उनके पाम रामचन्द्रसूरि ने साहित्यकारी को अच्छी मण्डली थी। लोर श्रुति है-चौरामी कलमे एक नाय उनके प्रशिक्षण केन्द्र में चलती थी। आचार्य हेमचन्द्र भविष्यवक्ता भी थे। मिद्धराज का उत्तराधिकारी कुमारपाल होगा-यह बात सबके मामने मिद्धराज के स्वगवाम ने गात वर्ष पूर्व ही उन्होने कह दो। एक बार कुमारपाल को मृत्यु के फर पजो से बचाकर मिहामन पर आल्ट होने ने पहले ही उनको अपने अप्रतिहत तेज से प्रभावित कर लिया था। मिद्धराज और हेमचन्द्र दोनो समवयस्क थे। राजा यान्नव में किसीके मिन्न नहीं होते पर हेमचन्द्र के विशाल एव उदार व्यक्तित्व के कारण महाराज के माथ उनको मंत्री अन्तिम ममय तक गहराती गयो । मिद्धराज के स्वर्गवाम के बाद कुमारपाल पाटण का गायक बना। आचार्य हेमचन्द्र की भविष्यवाणी नत्य हुई । कुमारपरा उनके परमोपकार में श्रद्धावनत वना हुआ था। राजसिंहामन पर आरूढ होते ही उसने अपना राज्य आचार्य हेमचन्द्र जी के चरणो मे ममपित कर दिया। उन्होने राज्य के बदले कुमारपाल से 'अमा' की घोषणा करवायी। इसमें कुछ लोगो को ईर्ष्या हुई। उन्होने राजा के कान भरे, "स्वामिन् । देवी पनि माग रही है, माग पूर्ण न होने पर उगका कोप विनाश का हेतु होगा।" कुमारपाल ने हेमचन्द्राचार्य से परामर्ण किया, तथा राति मे देवी के सामने पशु छोड दिये और कहा, "देवी की इच्छा होने पर वह स्वय ही उनका भक्षण ले लेगी।" गत्रि पूर्ण हुई, पशु कुशलतापूर्वक वही पडे थे। प्रतिवादी निरुत्तर हो गये । कुमारपाल के मन में अहिंमा के प्रति गहरी निष्ठा जागृत हुई। हेमचन्द्राचार्य अवसरज्ञ थे। एक बार उन्होंने कुमारपाल के माथ तीर्थयात्राए की और शिव मन्दिर में प्रवेश करते समय शिव के मामने पडे होकर कहा भवबीजाकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुवा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै । -भव वीज को अकुरित करने वाले रागद्वेप पर जिन्होने विजय प्राप्त कर ली है, भले वे ब्रह्मा, विष्णु, हरि और जिन किसी भी नाम से सम्बोधित होते हो, उन्हें मेरा नमस्कार है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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