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________________ ज्ञान-पीयूष पाथोघि आचार्य हेमचन्द्र ३२१ ने तर्कशास्त्र, लक्षणशास्त्र एव साहित्य की अनेक विध विधाभो का अध्ययन किया। गुरु ने धर्म धुरा धोरेय श्रमण सोमचन्द्र को योग्य समझकर भाचार्य पद पर नियुक्त किया। भाचार्य पदप्राप्ति के समय सब प्रकार से ग्रह बलवान ये एव लग्न वृद्धिकारक थे। इस समय उनकी अवस्था २१ वर्ष की थी। आचार्य पदप्राप्ति के बाद उनका नाम हेमचन्द्र हुआ। उनकी माता पाहिनी ने भी श्रमण दीक्षा ग्रहण की और उन्हें प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित किया गया। हेमचन्द्र को कीति आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होते ही विस्तार पाने लगी। उनके जीवन में सिद्धराज जयसिंह और भूपाल कुमारपाल का योग मानव जाति के कल्याण के लिए वरदान मिद्ध हुआ। गुजरात-रल जयमिह सिद्धराज मालव से विजयमाला पहनकर लौटे। लक्ष्मी उनके चरणो मे नाच रही थी पर सरस्वती के स्वागत के बिना उनका मन खिन्न था। मालव धरा का भारी माहित्य उनके फरकमलो की शोमा वटा रहा था । पर उनके पास न कोई अपनी व्याकरण थी और न जीवन को मधरस से मोत-प्रोत कर देने वाली काव्यो की अनुपम सम्पदा। सिद्धराज ने इम क्षतिपूर्ति के लिए महान् प्रतिभाओ को आह्वान किया और उनकी सूक्ष्मबोधिनी दृष्टि मव विद्वानो को चीरकर आचार्य हेमचन्द्र पर जा टिकी । राजमभा में उन्होने कहा-"मुनि नायक | विश्वलोकोपकार के लिए नये व्याकरण का निर्माण करो। इसमे तुम्हारी ख्याति है और मेरा यश है। मिद्धराज का सकेत पाते ही हेमचन्द्र ने गुजरात के साहित्य में चार चाद लगा दिये । मर्वाग परिपूर्ण सिद्धहेम व्याकरण उनको प्रथम रचना थी जिसे पाकर गुजरात का महित्य चमक उठा। हाथी के हौदे पर रखकर उस व्याकरण का राज्य में प्रवेश कराया गया। तीन सौ विद्वानो ने बैठकर उसकी प्रतिलिपिया तैयार की। काश्मीर तक के पुस्तकालयो मे इस व्याकरण को सम्मानपूर्वक स्थान प्राप्त हुआ। ___ अग, बग, कलिंग, लाट, कर्णाटक, कुकुण, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, वत्स, कच्छ, मालव, सिन्धु, सौवीर, नेपाल, पारस, मुरण्ड, हरिद्वार, काशी, गया, कुरुक्षेत्र, कान्यकुब्ज, गोड, श्री कामरूप, सपादलक्ष, जालघर, सिंहल, कौशिक आदि अनेक नगरो में इस व्याकरण साहित्य का प्रचार हुआ । ये प्राचीन काल मे सुप्रसिद्ध नगर थे। गुजरात के पाठ्यक्रम मे भी इमी व्याकरण की स्थापना हुई और उसके अध्यापन के लिए विशेप अध्यापको को नियुक्त किया गया। उनमे प्रमुख अध्यापक कायस्थ कुल का कवि चक्रवर्ती शब्दानुशासन-शासनाम्बुधि-पारद्रष्टा काकल
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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