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________________ विद्वदवेड्र्य आचार्य वादिदेव ३१६ वर्षे (११७४) सूरित्वमभवत् प्रभो ॥२८६॥ नवमे वन्सरे दीक्षा एकविंशत्तमे तथा। सूरित्व सकलायुश्च त्यशीतिवत्सरा अभूत् ।।२८७॥ आचार्य वादिदेव विद्वद् समाज में वैडूर्य के समान थे। आधार-स्थल १ हृदयानन्दने तन वर्धमाने च नन्दने । चन्द्रस्वप्नात् पूर्णचन्द्र इत्याख्या तत्पिता व्यधात् ॥१४॥ (प्रभा० चरित, पनाक १७१) २ ततो योग्य परिज्ञाय रामचन्द्र मनीपिणम् । प्रत्यप्ठिपन् पदे दत्तदेवसूरिवराभिधम् ।।४।। (प्रभा० चरित, पनाक १७२) ३ चन्द्राष्टशिववर्षेऽत्र (११८१) वैशाखे पूणिमादिने । आहूती वादशालाया तो वादिप्रतिवादिनी ॥१९॥ (प्रभा० चरित, पनाक १५८) ४ स्यातादपूर्वक रत्नाकर स्वादुवचोऽमृतम् । __ प्रमेयशतरलाढ्यममुक्त स किल श्रिया ॥२०॥ (प्रभा० चरित, पनाक १८१) ५ श्री भद्रेश्वरसूरीणा गच्छभार समय ते । जैनप्रभावनास्थेमनिस्तुपश्रेयसि स्थिता ॥२८॥ (प्रभा० चरित, पनाक १८१) ६ रसयुग्मरवौ वर्षे (१२२६) श्रावणे मासि सगते । कृष्णपक्षस्य सप्तम्यामपराह्न गुरोदिने ॥२४॥ मर्त्यलोकस्थित लोक प्रतिवोध्य परदरम। प्रतिवोध्य पुरदरम् । बोधका इव ते जग्मुर्दिव श्री देवसूरय ॥२८॥ (प्रभा० चरित, पन्नाक १८१)
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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