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________________ ३१६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य विवरण, (७) भव भावना मूत्र, (८) भव भावना विवरण, (8) नन्दि टिप्पण, (१०) विणेपावश्यक भाष्य वृहद् वृति । ये नाम विशेषावश्यक भाग्य की वृहद् वृत्ति में उपलब्ध है। इन ग्रन्थों का परिमाण ८०००० श्लोक है। हरिभद्रकृत आवश्यक वृत्ति पर पाच हजार श्लोक परिमाण उन्होने टिप्पण रचा । यह आवश्यक वृत्ति प्रदेश व्याख्या के नाम से प्रसिद्ध है। इसका दूसरा नाम हरिभद्रीयावश्यक वृत्ति टिप्पण भी है। 'उपदेशमाला मूल' और 'भव भावना मूल' उनकी मर्वप्रथम रचना है। इन दोनो ग्रन्यो पर चौदह हजार और छत्तीम हजार परिमाण उनकी म्वोपज वत्तिया भी हैं। मल्नधारी जी की अधिक प्रमिद्धि टीकाकार के रूप में है। अनुयोग द्वार पर छह हजार श्लोक परिमाण और विशेषावश्यक भाष्य पर उन्होंने अट्टाईम हजार मनोक परिमाण वृहद् वृत्ति लिगी है। ये दोनो ही वृत्तिया मरल और सुबोध हैं। स्यूल बुद्धि के पाठक के उपागथं इनकी रचना हुई है । आवश्यक वृत्ति मे स्वरविद्या, निफित्माविद्या, गणितविद्या तथा इसी प्रकार अन्य विद्याओ से सम्बन्धित अनेक उपयोगी श्लोको का अवतरण लेखक ने किया है। उम रचना का काल अभी अप्राप्त है। विरोपावश्यक माग वृहद वृत्ति मल्लधारी जी की सुविशाल कृति है । इसे 'शिष्यहिता' वृत्ति भी कहते हैं। इसमें भरपूर दार्शनिक चर्चाए हैं। प्रश्नोत्तरप्रधान होने के कारण इसकी शैली में गोद का-मा लोच पैदा हो गया है। इसे पढ़ते-पढ़ते पाठक का मन कुछ समय के लिए कृति के माथ गहरा चिपक जाता है। स्थान-स्थान पर मरकृत पायाओ के प्रस्तुतीकरण ने इसे और भी रुचिप्रद बना दिया है। यह एक ही कृति मालधारी जी के व्यक्तित्व को पर्याप्त परिचायिका है। सम्गृत टीका नाहित्य की श्री वृद्धि भी इसमे सुविस्तृत हुई है। विजयसिंह, श्रीचन्द्र, विवुधचन्द्र नामक तीन उनके विद्वान् शिष्य थे। श्रीचन्द्र भूरि महान् माहित्यकार थे। माहित्य-साधना से इन्होने अपने गुरु हेमचन्द्र का नाम बहुत उजागर किया। अतिम समय में आचार्य मल्लधारी हेमचन्द्र को सात दिनो का अनशन आया। राजा सिद्धराज स्वय इनकी शवयात्रा में सम्मिलित हुए और श्मशान भूमि तक पहुचे। मल्लधारी जी के शिष्य विजयसिंह सूरि वी० नि० १६१२ (वि० स० ११४२) में विद्यमान ये । मल्लधारी हेमचन्द्र का काल-निर्णय अभी तक अनुसन्धान मागता है। उनकी स्वहस्त लिखित जीव समास वृति में उन्होने वी० नि० १६६४ (वि० ११६४) का उल्लेख किया है। विजयसिंह सूरि का काल सम्वत् देखते हुए लगता है, यह सम्वत् उनके शिष्यकाल का है तथा आचार्य हेमचन्द्र ने जीव समास वृत्ति की प्रतिलिपि अवश्य वृद्धावस्था मे की है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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