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________________ जनवल्लभ आचार्य जिनवल्लम ३०५ जिनवल्लभ सरि पद से पहले गणी अभिधा से प्रसिद्ध थे। अपने युग के वे भारी विद्वान् आचार्य हुए। पड्दर्शन किरणावली, न्याय, तक, पाणिनीय आदि व्याकरणों के मूव उन्हे कठाप ये। चोगसी नाटक, सम्पूर्ण ज्योतिषशास्त्र, छन्द ग्रन्यो के भी वे विशेप मर्मन थे। वे अच्छे गाहित्यकार भी थे। उन्होने (१) आगमिक वस्तु विचार सार, (२) शृगार गतक, (३) प्रश्नपष्टि शतक, (6) पिंड विशुद्ध प्रकरण, (५) गणधर साधं शतक, (६) पौषध विविध प्रारण, (७) संघ पट्टक प्रतिक्रमण ममाचागे, (0) धर्म शिक्षा, (९) धर्मोपदेशमय द्वादश मूलक हा प्रकरण, (१०) प्रश्नोत्तर शतक, (११) स्वप्नाप्टक विचार, (१२) चित्रकाव्य, (१३) अजित शान्ति स्तवन, (१४) भवारिवारण स्तोत्र, (१५) जिनकल्याण स्तोत्र, (१६) जिन चरितमय जिन म्तीव, (१७) महावीर चरिखमय वीरस्तव आदि कई सारगमित ग्रन्थों की रचना की। जनवल्लम आचार्य जिनवल्लग वी० नि० १६३७ (वि० ११६७) कार्तिक कृष्णा द्वादगी को रात्रि के चतुर्य प्रहर में परमेप्ठो ध्यान में तल्लीन थे। उसी. अवस्था में विदियनीय अनशन के साथ उनका स्वर्गवास हो गया। गणी रूप में उन्होंने जैन दर्शन की अच्छी प्रभावना की। आचाय पद को वे केवल चार महीनों तक ही विभूपिन पर पाए।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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