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________________ २५. महिमा-मकरन्द आचार्य माणिक्यनन्दि आचार्य माणिक्यनन्दि की गणना दिग्गज विद्वानो मे होती है। वे नन्दि सघ के आचार्य ये। विन्ध्यगिरि के शिलालेखो में एक शिलालेय शक स० १३२० ई० स०१३६८ का है। उसमे नन्दि सघ के आठ आचार्यों में एक नाम माणिक्यनन्दि धारा नरेश भोज की विद्वान् मडली में महाप्रभावी आचार्य माणिक्यनन्दि विशेष सम्मान प्राप्त थे। वे प्राञ्जल प्रतिमा के धनी थे। वे न्यायशास्त्र के अधिकृत विद्वान् थे और आचार्य अकलक के गभीर न्याय ग्रन्यो के अध्येता थे । आचार्य विद्यानन्द की प्रमाण परीक्षा, पन परीक्षा आदि कृतियो का भी उनके मानस पर पर्याप्त प्रभाव था। आचार्य अकलक के साहित्य के महार्णव का मन्थन कर उन्होने 'परीक्षा मुखग्रन्य' की रचना की। यह ग्रन्य न्याय-जगत् का दिव्य अलकार है। प्रमेयरत्नमाला के टीकाकार लघु अनन्त वीर्य ने इस ग्रन्थ को न्यायविद्या का अमृत माना है। इसकी सूत्रमयी भापा आचार्य जी के गभीर ज्ञान की परिचायिका है। गौतम के न्यायसूत्र एव दिड नाग के न्यायमुख की तरह समग्र जैन न्याय को सूत्रबद्ध करने वाला यह एक अलौकिक ग्रन्थ है। इसकी सक्षेपक शैली अपने ढग की निराली और नितान्त नवीन है । वादिदेव सूरि की कृति 'प्रमाण नय तत्त्व लोकालकार' और हेमचन्द्र की 'प्रमाण मीमासा' इस कृति से पूर्ण प्रभावित प्रतीत होती है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने इसी ग्रन्थ पर प्रमेय कमल-मार्तण्ड नामक विशाल टीका लिखी है और अपने को उनका शिष्य घोपित किया है । अपभ्रश काव्य 'सुदसण चरिउ' के रचनाकार मुनि नयनन्दि भी उनके विद्याशिष्य थे। अपने इस ग्रन्थ में नयनन्दि ने माणिक्यनन्दि को महापडित का सवोधन देकर आदर प्रकट किया है। प्रभाचन्द्र और माणिक्यनन्दि का साक्षात् गुरु-शिष्य-सम्बन्ध होने के कारण विविध प्रमाणो के आधार पर माणिक्यनन्दि का समय वी. नि० १५२० से १५८० (वि० स० १०५० से १११०) तक का अनुमानित किया है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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