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________________ अमेय मेधा के धनी आचार्य हरिभद्र २४७ षड्दर्शन समुच्चय मे भारत की प्रमुख छह दर्शन धाराओ का उल्लेख तथा उनके द्वारा सम्मत सिद्धान्तो का प्रामाणिक रूप से निरूपण है । नास्तिक धारा को भी आस्तिक धारा के समकक्ष प्रस्तुत कर उन्होने महान् उदारता, सदाशयता और तटस्थता का परिचय दिया है। कथाकोष उनका श्रेष्ठ ग्रथ है और कथाओ का दुर्लभ भडार था जो वर्तमान मे उपलब्ध नहीं है। 'समराइच्च कहा' उनकी अत्यन्त प्रसिद्ध प्राकृत रचना है। शब्दो का लालित्य, शैली का सौष्ठव, सिद्वातसुधापान कराने वाली कात-कोमल पदावली एव भावाभिव्यक्ति का अजस्त्र बहता ज्ञान निर्झर कथावस्तु की रोचकता एव सोदर्य, प्रसाद तथा माधुर्य इसका समवेत स्प-इन सभी गुणो का एकसाथ दर्शन इस कृति मे होता है। ___ लोक तत्त्वनिर्णय, श्रावक प्रज्ञप्ति, अष्टक प्रकरण, पचाशक, पचवस्तु प्रकरण टीका आदि अनेक ग्रथो के रूप मे साहित्य-जगत् को आचार्य हरिभद्र की अमर देन है। __ आचार्य हरिभद्र का युग पक्षाग्रह का युग था। उस समय मे भी उन्होने समन्वयात्मक दृष्टि को प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट उद्घोप किया पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेप कपिलादिपु । युक्तिमद् वचन यस्य, तस्य कार्य परिग्रह ।। वीर वचन मे मेरा पक्षपात नहीं। कपिल मुनियो से मेरा द्वेप नही। जिनका वचन तर्कयुक्त है-वही ग्राह्य है। __ आचार्य हरिभद्र वडे स्पष्टवादी थे। सम्बोध-प्रकरण म उन्होने उस युग मे छाये शिथिलाचार के प्रति करारा प्रहार किया है। ___ हरिभद्र का साहित्य उत्तरवर्ती साहित्यकारो के लिए आधार बना। उनकी 'समराइच्च कहा' को पढकर आचार्य उद्योतन मे भी ग्रथ लिखने की प्रेरणा जगी। उमकी परिणति कुवलयमाला के रूप मे हुई। उनकी टीकाओ ने सस्कृत मे आगम व्याख्या लिखने का मार्ग प्रस्तुत किया। शीलाक अभयदेव, मलयगिरि आदि का प्रेरणा स्रोत उनका टीका साहित्य ही है। उनकी योग-सवधी नई दृष्टियो ने योग के सदर्भ में सोचने का नया क्रम दिया। योग पल्लवन की दिशा मे यशोविजय जी को उत्माहित करने वाली हरिभद्र सूरि की यौगिक कृतिया ही है। साहित्य रचना मे लल्लिग नाम के एक व्यक्ति ने उनको सहयोग दिया था। वह रात्रि के समय हरिभद्र सूरि के उपाश्रय मे एक मणि रख दिया करता था, जिसके प्रकाश मे हरिभद्र सूरि साहित्य रचना किया करते थे। ____ आज उनका सपूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं है पर जो कुछ भाग्य से प्राप्त है उससे अव भी शोध-लेखको को पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होती है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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