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________________ अमेय मेधा के धनी आचार्य हरिभद्न २४३ इन ग्लोको मे गुणसेन एव अग्नि शर्मा के कई भवो को वैराग्यमयी घटना सकलित थी। वर का अनुवन्ध भव-भवान्तर तक चलता रहता है, यह तथ्य इस कथा के माध्यम से बहुत स्पष्ट उमारा गया था। आचार्य जिनदत्त द्वारा प्रेपित इन ग्लोको को पढते ही हरिभद्र का कोप उपशात हो गया। ध्रुतानुश्रुत परम्परा के अनुमार क्रुद्ध हरिभद्र को प्रतिवोच देने वाली याकिनी महत्तराजी थी। रात्रि के समय आचार्य हरिभद्र विद्यावल से १४४४ बौद्ध भिक्षुओ को व्योममार्ग मे आकृष्ट कर उनकी महान् हिमा का उपक्रम कर रहे थे। इस घटना की सूचना मिलते ही महत्तरा जी ने तत्काल उपाश्रय मे जाकर द्वार खटखटाए और कहा-"मुजे अभी प्रायश्चित्त लेना है।" आचार्य हरिभद्र ने भीतर से ही प्रत्युत्तर दिया-"रात्रि के समय मे साध्वियो का प्रवेश निपिद्ध है। आलोचना कल कर लेना।" महत्तरा जी अपने आग्रह पर दृढ थी। वह बोली-"इम जीवन का कोई विश्वास नहीं है। प्रभात होने तक सास रुक गया तो मैं अपने दोप का प्रायश्चित्त 'किए विना विराधक हो सकती है। कृपया द्वार अभी गुलने चाहिए।" महत्तरा जी के लिए बहुत ऊचा स्थान आचार्य हरिभद्र के मानस मे था। वे उनके फाथन का प्रतिवाद न कर सके। द्वार खुलते ही आचार्य हरिभद्र के सामने उपस्थित होकर महत्तराजी बोली-"प्रमादवश मेरे पर से मेढक की हत्या हो गई है। मुझे प्रायश्चित्त प्रदान करें।" आचार्य हरिभद्र ने दोप-विशुद्धि हेतु उन्हे तीन उपवास दिए। महत्तरा जी ने निवेदन किया-"मुझे एक मेढक की अपघात के प्रायश्चित्तम्बम्प तीन उपवास मिले हैं। आपको इस महान् हिंसा का क्या दण्ड मिलेगा? आचार्य हरिभद्र एक वाक्य से ही नभल गए। दूबती नैया किनारे लग गई । छूटती पतवार हाथ में थम गयी।" पुरातन प्रवन्ध-संग्रह मे महत्तरा जी के स्थान पर श्रावक का उल्लेख है। आचार्य जिनदत द्वारा निर्देश पाकर एक सुदक्ष श्रावक कोपाविष्ट आचार्य हरिभद्र के पास पहुचा और उसने प्रार्थना की-"आर्य | मै गुरुदेव जिनदत्त के पास प्राय'श्चित्त लेने के लिए गया था। उन्होने मुझे प्रायश्चित्त ग्रहणार्थ आपके पास भेजा है। मेरे मे पचेन्द्रिय जीव की विराधना हो गयी है, इससे मेरा मन बहुत खिन्न है। आप मुझे कृपाकर प्रायश्चित्त प्रदान करे।" हरिभद्र उन्मुख होकर बोले-"सुवहुप्रायश्चित्तमेष्यति-बहुत अधिक प्रायश्चित्त तुम्हे वहन करना होगा।" श्रावक वोला-"मुझे इतना प्रायश्चित्त प्रदान कर रहे हैं। आपको इस हिंसात्मक कार्य के लिए कितना प्रायश्चित्त वहन करना होगा?" सुविज्ञ हरिभद्र ने समझ लिया-यह प्रेरणा श्रावक के माध्यम से आचार्य जिनदत्त की है। उन्होने लज्जा से अपना मुख नीचे कर लिया। श्रावक पुन
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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