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________________ ६ मुक्ति-मन्दिर आचार्य मानतुग आचार्य मानतुग वाराणसी के थे। वे विद्वान् श्रेष्ठी धनदेव के पुत्र थे। उनकी माता का नाम धनश्री था । उन्होने दिगम्बर परम्परा मे दीक्षा ग्रहण की । भगिनी से उद्बोध प्राप्त कर आचार्य अजितसिंह के पास वे श्वेताम्बर मुनि बने । दिगम्बर मुनि-अवस्था मे उनका नाम चारुकीर्ति था। उनका दूसरा नाम महाकीति भी था । श्वेताम्बर श्रमण बनने के बाद सम्प्रदाय-परिवर्तन के साथ उनका नाम भी परिवर्तित हुआ। वे मानतुग के नाम से सम्बोधित होने लगे। ___आचार्य मानतुग के समय वाराणसी मे निकलक राजा हर्पदेव का शासन था।' हर्षदेव कविजनो का विशेप आदर करते थे। वाण और मयूर नाम के कवि उनकी सभा मे अतिशय सम्मान को प्राप्त हुए। मयूर ने सूर्यशतक के द्वारा सूर्य की उपासना कर अपने कुष्ठ रोग को शान्त कर लिया था। चडीशतक के द्वारा चडीदेवी को प्रसन्न करने से वाण कवि के विच्छिन्न हाथ-पैर यथोचित स्थान पर जुड गये थे। हर्पदेव इन दोनो विद्वानो के मनप्रयोगो से प्रभावित हुए और वोले"आज चामत्कारिक विद्याओ का धनी ब्राह्मण वर्ग है। इनका अतिशय प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। किसी दर्शन मे इन जैसा प्रभावक व्यक्ति हो तो मुझे सूचित करे।" राजा हर्षदेव का मनी जैन था। उसने राजा से नम्र निवेदन किया-"भूमिनाथ यह धरा वसुन्धरा है। इसके महासाम्राज्य मे बहुमूल्य रत्नो के भडार भरे है । जैनो का भी चामत्कारिक विद्याओ पर अतिशय आधिपत्य है। जैन विद्वान् महाप्रभावसम्पन्न श्वेताम्बराचार्य मानतुग आपकी नगरी में विराजमान हैं। आपकी कौतुकमयी जिज्ञासा को पूर्ण करने मे वे समर्थ है । आप उनको सादर आमत्रित करे। राजा ने मत्री को उन्हें सम्मानपूर्वक बुला लाने का निर्देश दिया। मनी ने आचार्य मानतुग के पास जाकर समग्र स्थिति से उन्हे अवगत किया और कहा-"कृपा कर आप अपने चरणो से राजप्रागण को पवित्र करे और चामत्कारिक विद्या के प्रयोग का प्रदर्शन करे।" आचार्य मानतुग वोले-"समग्र सासारिक कामनाओ से मुक्त मुनिजनो को इस प्रदर्शन से कोई प्रयोजन नही है।" मनी ने प्रार्थना की-"मैं जानता हू आप निस्सग और निरासक्त है, पर यहा जैन धर्म की प्रभावना का प्रश्न
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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