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________________ भवाब्धि-पोत आचार्य भद्रवाहु-द्वितीय (नियुक्तिकार) २२३ आधार-स्थल १ सूर्यमापृच्छ्य ज्ञानेन च जगदुपकर्तुं महीलोक भ्रमन्नसि ।। (प्रवन्धकोश, भद्रबाहु वराह प्रवन्ध, पृ० ३, पक्ति ५) २ (क) नक्खत सुमिण जोग, निमित्त मत भेसज । गिहिणोत न नाइपपे, भूयाहिगरण पय ॥५०॥ (दशव ८/५०) (ब) छिन सर भोम अतलिम, मुमिण लक्षणदण्डवत्युविज । अगवियार सरस्म विजय जो विज्जाहिं न जीयइ सभिवयु ॥७॥ (उत्तरा १५/७) ३ जय बाल सप्तमे दिवसे नशीपे विडालिकया पातिप्यते । (प्रवधकोश, भद्रबाहु वराह प्रव०, पृ०३, पक्ति २१) ४ राजा श्रावकधर्म प्रतिवेदे। (प्रवन्धकोश, भद्रबाहु वराह प्रवन्ध, पृ० ४ पक्ति १७) ५ तन पूर्वेभ्य उद्धृत्य 'उवमगहर पास' इत्यादि स्तवन गापा पञ्चयमय सन्दद्र गुरुभि । (प्र०को०, भद्रवाह वराह प्रव०, पृ० ४, पवित १८) ६ नावस्सगस दसर्वकालिअस्स तह उत्तरमायारे । सूअगडे निजुत्ति वोच्छामि तहा दसाण च । कप्पस्स य निज्जुत्ति ववहारस्मेव परमनिउणम्स। भूरि अपन्नत्तीए वृच्छ इमीमासिआण च । (आवश्यक नियुक्ति) ७ वदामि भद्दवाहु, पाईण चरिममगनसुयनाणि । सुत्तस्स कारगमिसि, दसासु कप्पे य यवहारे ॥१॥ (दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति) ८ (क) वृहत्कल्प सूत्र सभाष्य (पप्ठो विभाग) (प्रस्तावना पनाक १७) (ख) सप्ताश्विवेदसख्य, शककालमपाम्य चनशुमलादी। अर्धास्तमिते भानौ, यवनपुरे सौम्यदिवसाये ॥६ (पच सिद्धान्तिका)
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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