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________________ २०२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य आराधना कर। मोहादि तरुओ से गहन इस ससार अटवी मे भ्रमण क्यो कर रहा है?" आचार्य वृद्धवादी की उद्बोधक वाणी से आचार्य सिद्धसेन के अन्तर् चक्षु उद्घाटित हुए। उन्होने गुरु चरणो मे नत हो क्षमा याचना की। किंवदन्ती के अनुसार वृद्धवादी ने कूर्मार ग्राम मे पहुचकर आचार्य सिद्धसेन की पालकी के नीचे अनेक शिविकावाही पुरुषो के साथ अपना कधा लगा दिया। अवस्था वृद्ध होने के कारण वृद्धवादी के पाव लडखडा रहे थे एव उनकी ओर से सुख पालकी लचक रही थी। आचार्य सिद्धसेन की दृष्टि कृशकाय-वयोवृद्ध वृद्धवादी पर पहची और दर्प के साथ वे बोले अयमादोलिका दड वृद्धस्तव किन्नु बाधति। -रे वृद्ध | इस सुख पालकी का दड तुम्हे कष्टकर प्रतीत हो रहा है ? आचार्य सिद्धसेन द्वारा उच्चारित वाधति धातु के प्रयोग पर आचार्य वृद्धवादी चौके । सस्कृत के 'वाधृड्' धातु का परस्मैपदव्यवहार सर्वथा अशुद्ध है। इस अशुद्ध प्रयोग को परिलक्षित कर वे बोले न वाधते तथा दण्ड यथा बाधति बाधते। -मुझे इस दण्ड से नही वाधति धातु के प्रयोग से क्लेश हो रहा है। आचार्य सिद्धसेन जानते थे, मेरी अशुद्धि की ओरसकेत करने वाला व्यक्ति मेरे गुरु वृद्धवादी के अतिरिक्त कोई नही हो सकता। अत आचार्य सिद्धसेन तत्क्षण सुख शिविका से नीचे उतरे, आत्मालोचन करते हए गुरु-चरणो मे गिरे। आचार्य वृद्धवादी ने उन्हे प्रायश्चित्तपूर्वक सयम मे स्थिर किया। आचार्य सिद्धमेन सस्कृत भापा के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उस समय सस्कृत भाषा का सम्मान बढ रहा था। प्राकृत भापा ग्रामीण भापा समझी जाने लगी। जैनेतर विद्वान् अपने-अपने ग्रथो का निर्माण सस्कृत मे करने लगे थे। आगमो को विद्वद्भोग्य बनाने के लिए सिद्धसेन ने भी आगम ग्रन्थो को प्राकृत से सस्कृत मे अनूदित करना चाहा। उन्होने यह भावना गुरुजनो के सामने प्रस्तुत की। स्थितिपालक मुनियो द्वारा नवीन विचारो के समर्थन पाने का मार्ग सरल नही था। सारे सघ ने आचार्य सिद्धसेन का प्रवल विरोध किया। श्रमण बोले-"कि सस्कृत कर्तुं न जानन्ति श्रीमन्त तीर्थंकरा गणधरा वा यदर्धमागधेनागमानकृपत ? तदेव जल्पतस्तव महत् प्रायश्चित्तमापन्नम्।" तीर्थकर और गणधर सम्कृत नही जानते थे? उन्होने अर्ध मागधी भापा मे आगमो का प्रणयन क्यो किया ? अत आगमो को मस्कृत भाषा मे अनूदित करने का विचार महान् प्रायश्चित्त का निमित्त है। ___ मघ के इस अतविरोध के फलस्वस्प आचार्य सिद्धमेन को मुनिवेश बदलकर बारह वर्ष तक गण से बाहर रहने का कठोर दण्ड मिला। इस पाराञ्चित नामक दशवें प्रायश्चित्त को वहन करते समय आचार्य मिद्धमेन के लिए एक अपवाद
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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