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________________ सरस्वती-कठाभरण आचार्य सिद्धसेन १६६ अपने विचारो को सहज गामीण भाषा मे प्रस्तुत करते हुए वे पुन बोले कालउ कवलु अनुनी चाटु छासिहि खालडु भरिउ निपाटु । अइ वडु पडियउ नीलइ झाडी अवर किसर गट सिंग निलाडि ।। प्रस्तुत दोहे का राजस्थानी रूपान्तर इस प्रकार उपलब्ध होता है काली कम्बल अरणी सट्ठ छाछड भरियो दीवड मछ। एवड पडियो लीले झाड, अवर कवण छ स्वर्ग विचार ।। शीतनिवारणार्थ काली कम्बल पास हो, हाथ मे अरणि की लकडी हो, मटका छाछ से भरा हो और एवड को नीली घास प्राप्त हो गयी हो, इसमे बढकर अन्य स्वर्ग क्या हो सकता है। ___ सुमधुर ग्रामीण भाषा मे आचार्य वृद्धवादी द्वारा स्वर्ग की परिभापा मुनकर गोपालक जय-जय का घोप करते हुए नाच उठे। उन्होने कहा-"वृद्धवादी सर्वज्ञ है। श्रुति सुखद उपदेश का पाठक है । सिद्धसेन अर्थहीन बोल रहा है।" ___ गोपालको की सभा मे आचार्य वृद्धवादी विजयी हुए। जय-पराजय का निर्णय आचार्य वृद्धवादी भृगुपुर में पहुचकर विद्वत् सभा में करवाना चाहते थे, पर आचार्य सिद्धसेन अपने सकल्प पर दृढ थे। आचार्य वृद्धवादी ने पाण्डित्य का प्रदर्शन न कर ममयज्ञता का कार्य किया, समयज्ञ ही सर्वज्ञ होता है । इस अभिमत पर आचार्य वृद्धवादी को सर्वज्ञ और उनकी मूझ-बूझ के सामने अपने को अल्पज्ञ मानते हुए विद्वान् सिद्धसेन ने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उनका शिप्यत्व स्वीकार कर लिया। वे मुनि वन गए। उनका दीक्षा नाम कुमुदचन्द्र रखा गया । वृद्धवादी के शिप्य परिवार में कुमुदचन्द्र अत्यन्त योग्य और प्रतिभावान शिप्य थे। एक दिन वृद्धवादी ने उन्हे आचार्य पद पर आस्ट कर शिप्य समुदाय के साथ धर्मप्रभावना के लिए स्वतन्त्र विहरण का आदेश दे दिया और उनका नाम कुमुदचन्द्र से पुन मिद्धमेन हो गया। प्रखर वैदुप्य के कारण आचार्य सिद्धमेन की प्रसिद्धि सर्वज्ञ पुत्र के नाम मे भी हुई। श्रमण परिवार से परिवृत आचार्य सिद्धसेन का पदार्पण अवन्ति मे हुआ। नगर-प्रवेश करते समय विशाल जन-समूह उनके पीछे-पीछे चल रहा था। सर्वज्ञ पुन की जय हो-कहकर आचार्य सिद्वसेन कीविरुदावलि उच्च घोपो से मार्गवर्ती चतुष्पयो पर वोली जा रही थी। अवन्ति-शासक विक्रमादित्य का सहज आगमन सामने से हुआ। वे हाथी पर आस्ढ थे। सर्वज्ञता की परीक्षा के लिए उन्होंने वही से आचार्य मिद्धमेन को मानसिक नमस्कार किया। निकट आने पर विक्रमादित्य को आचार्य सिद्धसेन ने उच्च घोपपूर्वक हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। विक्रमादित्य वोले-"विना वदन किए ही आप किसको आशीर्वाद दे रहे है?" ___ आचार्य सिद्धसेन ने कहा-"आपने मानसिक नमस्कार किया था, उसी के उत्तर मे मैंने आशीर्वाद दिया है।"
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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