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________________ १६० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य दुष्काल ने हृदय को कप-कपा देने वाले नाखूनी पजे फैलाए । उस समय अनेक श्रुतधर श्रमण काल - कवलित हो गए एव श्रुत की महान् क्षति हुई । दुष्काल परिसमाप्ति के बाद वल्लभी मे पुन जैन सघ एकत्रित हुआ। विशिष्ट वाचनाचार्य नाना गुणालकृत श्री देवद्धगणी क्षमाश्रमण इस महाश्रमण सघ के अध्यक्ष थे । श्रमण सम्मेलन मे त्रुटित - अनुटित समग्र आगम-पाठी का श्रमण सघ के स्मृति सहयोग से सकलन हुआ एव श्रुत को स्थायित्व प्रदान करने हेतु उन्हे पुस्तकारूढ किया गया | आगम-लेखन का कार्य आर्यरक्षित के युग मे भी अशत प्रारम्भ हो चुका था। अनुयोग द्वार मे दो प्रकार के श्रुत का उल्लेख है - द्रव्य श्रुत एव भाव श्रुत | पुस्तक लिखित श्रुत द्रव्य श्रुत मे मान्य किया गया है।" आर्य स्कन्दिल और आर्य नागार्जुन के समय मे भी आगम लिपिवद्ध होने के उल्लेख मिलते है" पर देवगणी नेतृत्व मे समग्र आगमो का व्यवस्थित सकलन एव लिपिकरण हुआ वह अपने-आपमे अपूर्व था । अत परम्परा से यह श्रेय आर्य देवगण को प्राप्त होता रहा है। इस सदर्भ का प्रसिद्ध श्लोक है वलहिपुरम्मि नयरे, देवट्ठियमुहेण समणसघेण । पुत्थइ आगमु लिहिओ नवसयअसीआओ विराओ ॥ - वल्लभी नगरी मे देवद्धगणी प्रमुख श्रमण सघ ने वी० नि० ६८० (वि० - स ० ५१० ) मे आगमो को पुस्तकारूढ किया था । आगम-वाचना के समय स्कन्दिली एव नागार्जुनीय उभय वाचनाए देवद्धगणी क्षमाश्रमण के समक्ष थी । नागार्जुनीय वाचनाओ के प्रतिनिधि आचार्य कालक (चतुर्थ) थे । स्कन्दिली वाचना के प्रतिनिधि देवद्धगणी स्वय थे । उभय वाचनाओ 'पूर्ण समानता नही थी । विषमाश रह जाने का कारण आर्यं स्कन्दिल एव आर्य नागार्जुन का प्रत्यक्ष मिलन नही हो पाया था । अत दोनो निकटवर्ती वाचनाओ मे भी यह भेद स्थायी रूप मे सदा-सदा के लिए रह गया । 'देवद्धगणी ने श्रुत सकलन कार्य मे अत्यन्त तटस्थ नीति से काम किया । पूर्व वाचनाकार आचार्य स्कन्दिल hot वाचनाको प्रमुखता प्रदान कर तथा नागार्जुनीय वाचना को पाठान्तर के रूप स्वीकार कर महान उदारता और गम्भीरता का परिचय उन्होने दिया तथा जैन सघ को विभक्त होने से बचा लिया । आगम-वाचना के इस अवसर पर नन्दीसूत्र का निर्यूहण भी आर्य देवद्धगणी ने किया । इस निर्गुढ कृति मे ज्ञान की व्यवस्थित रूपरेखा के साथ-साथ आगम सूत्रो की सूची तथा अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थो का उल्लेख भी हुआ है । आचार्य सुधर्मा से लेकर दुष्यगणी तक के वाचनाचार्यो की समीचीन परम्परा भी प्रस्तुत है । वह इस प्रकार है १ आर्य सुधर्मा २ आर्य जम्बू ३ आर्य प्रभव ४ आर्यं शय्यभव
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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