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________________ ३४-३५ आगमपिटक-आचार्य स्कन्दिल और नागार्जुन अगाध ज्ञान के धनी, वाचक वश परम्परा के परम प्रभावी आचार्य स्कन्दिल एव नागार्जुन आगम वाचनाकार के रूप मे प्रसिद्धि प्राप्त है। वे अनुयोगधर आचार्य थे। भगवान् महावीर के निर्वाणोत्तर काल से अब तक चार आगम-वाचनाओ का उल्लेख मिलता है। उनमे प्रथम वाचना वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के उत्तरार्ध मे सम्पन्न हुई थी। उस समय दुष्काल के प्रभाव से श्रुतधर मुनियो की महान् क्षति होने पर भी श्रुत की धारा सर्वथा विच्छिन्न नही हुई थी। चौदह पूर्वो के ज्ञाता भवाब्धि-पतवार आचार्य भद्रवाहु एव श्रुत-सागर का समग्रता से पान कर लेने में सक्षम महाप्रतिभासम्पन्न आचार्य स्थूलभद्र जैसे श्रमण विद्यमान थे। वीर निर्वाण की नौवी शताब्दी मे द्वादश वार्षिक दुष्काल का श्रुत विनाशकारी भीषण आघात पुन जैन शासन को लगा। साधु-जीवन की मर्यादा के अनुकूल आहार की प्राप्ति दुर्लभ हो गयी। अनेक श्रुतसम्पन्न मुनि काल के अक मे समा गए । स्त्रार्थ ग्रहण-परावर्तन के अभाव मे श्रुत सरिता सूखने लगी। जैन शासन के मामने यह अति विपम स्थिति थी। वहुसख्यक मुनिजन सुदूर प्रदेशो मे विहरण करने के लिए प्रस्थान कर चुके थे। दुष्काल-परिसमाप्ति के बाद मयुरा मे श्रमण सम्मेलन हुआ। सम्मेलन का नेतृत्व आचार्य स्कन्दिल ने सम्भाला। श्रुतसम्पन्न मुनियो की उपस्थिति सम्मेलन की अनन्य शोभा थी। श्रमणो की स्मृति के आधार पर आगम पाठो का व्यवस्थित सकलन हुआ। इस द्वितीय आगम वाचना का समय वी०नि० ८२७ से ८४० (वि० स० ३५७ से ३७०) का मध्य काल है। यह आगम वाचना मथुरा में होने के कारण माथुरी वाचना कहलाई। आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता मे होने के कारण इसे स्कन्दिली वाचना के नाम से अभिहित किया गया। प्रस्तुत घटनाचक्र का दूसरा पक्ष यह भी है-दुष्काल के इस क्रूर आघात से अनुयोगधर मुनियो मे एक स्कन्दिल ही बच पाए थे। उन्होने मथुरा मे अनुयोग का प्रवर्तन किया था अत यह वाचना स्कन्दिली वाचना के नाम से विश्रुत हुई।' इसी समय के आसपास एक आगम-वाचना वल्लभी मे आचार्य नागार्जुन की
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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