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________________ ३१-३२. प्रबुद्धचेता आचार्य पुष्पदन्त एव भूतबलि पुष्पदन्त और भूतबलि महामेधासम्पन्न आचार्य थे । उनकी सूक्ष्म प्रज्ञा आचार्य धरसेन के ज्ञान-पारावर को ग्रहण करने में सक्षम सिद्ध हुई। उन्होने अगस्त्य ऋषि के सागर -पान की परम्परा को श्रुतोपासना की दृष्टि से दुहरा दिया था । आचार्य धरसेन से ज्ञान-सम्पदा लेकर लौटने के बाद दोनो ने एकसाथ अकलेश्वर मे चातुर्मासिक स्थिति सम्पन्न की । वहा से पुष्पदन्त वन की ओर चले गए तथा भूतबलि का पदार्पण द्रमिल देश के हुआ । आचार्य पुष्पदन्त ने जिनपालित नामक व्यक्ति को दीक्षा प्रदान की। जिनपति को योगियो का भी अधीश्वर माना गया है । षट्खण्डागम दिगम्बर साहित्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । सत्कर्म प्राभृत, खण्ड सिद्धान्त तथा षट्खण्ड सिद्धान्त की सज्ञा से भी यह ग्रन्थ पहचाना जाता है । इस ग्रन्थ के रचनाकार आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि थे । आचार्य पुष्पदन्त ने बीसदिसूत्र के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रो का निर्माण कर उन्हे जिनपालित के द्वारा भूतवलि के पास प्रेषित किया था । 'पुष्पदन्त के जीवन का सध्याकाल है – यह सूचना आचार्य भूतवलि को निपालित से प्राप्त हुई । आचार्य पुष्पदन्त द्वारा रचित १७७ सूत्रो के आगे साठ सहस्र सूत्रो का निर्माण कर आचार्य भूतबलि ने अवशिष्ट ग्रन्थ को पूर्ण किया था । इस ग्रन्थ का नाम ही 'षट्खण्डागम' है । षट्खण्डागम के छह विभाग हैं। प्रथम खण्ड का नाम 'जीवस्थान' (जीवट्ठाण ) है । उसके आठ अनुयोग द्वार है । नौ चूलिकाए है । श्लोक परिमाण सख्या अठारह सहस्र है । द्वितीय विभाग का नाम 'क्षुल्लक बन्ध' है । इसके ग्यारह अधिकार हैं । तृतीय खण्ड का नाम 'स्वामीत्वविचय' है । इसमे कर्म-सम्बन्धी विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है । चतुर्थ विभाग का नाम 'वेदना' है । इसके दो अनुयोग द्वार है । पचम विभाग का नाम 'वर्गणा' है। इसमे विभिन्न प्रकार की कर्म वर्गणा का
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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