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________________ २६. दूरदर्शी आचार्य धरसेन दिगम्बर परम्परा के आचार्य धरसेन आगम-ज्ञान के विशिष्ट ज्ञाता एव अष्टाग निमित्त के पारगामी विद्वान् थे। द्वितीय पूर्व का आशिक ज्ञान भी उनके पास सुरक्षित था। सौराष्ट्र के गिरिनगर की चन्द्र गुफा मे उनका निवास था। उन्होने योनि पाहुड (योनि प्राभृत) ग्रन्थ लिखा जो आज अनुपलब्ध है। श्रुत की धारा को अविच्छिन्न रखने के लिए महिमा महोत्सव मे एकत्रित दक्षिणापथ विहारी महासेन आचार्य प्रमुख श्रमणो के पास एक पत्र भेजा था। इस पत्र के द्वारा उन्होने प्रतिभासम्पन्न मुनियो की माग की थी। श्रमणो ने धरसेन द्वारा प्रेपित पत्र पर गम्भीरता से चिन्तन किया और समग्र श्रमण मुनि परिवार से चुनकर दो मेधावी मुनियो को उनके पास भेजा था। उनमे एक का नाम सुबुद्धि तथा दूसरे का नाम नरवाहन था। दोनो ही श्रमण विनयवान्, शीलवान्, जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न एव कलासम्पन्न थे। आगमार्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ थे और वे आचार्यों से तीन बार पूछकर आज्ञा लेने वाले थे। टीकाकार वीरसेन के शब्दो मे यह प्रसग निम्नोक्त प्रकार से उल्लिखित है "तेण वि सोरट्ठ-विसयगिरिणयरपट्टणचद गुहाठिएण अट्ठग महाणिमित्तपारएण गन्थवोच्छेदो होहदित्ति जादभएण पवयण-वच्छलेणदक्खिणावहाइरियाण महिमाए मिलियाण लेहो पेसिदो। लेहट्ठिय धरसेणवयणमवधारिय ते हि वि आइरिएहि वे साहू गहणधारण समत्था धवलामलबहुविह विणयविहूसियगा सीलमालाहरा गुरुपेसणासणतित्ता देसकुलजाडसुद्धा सयलकलापारया तिक्खुत्ता वुच्छियाइरिया अन्धविसयवेण्णायणादो पेसिदा।" जव दोनो श्रमण वेणानदी के तट से धरसेनाचार्य के पास आने के लिए प्रस्थित हुए थे उस समय पश्चिम निशा मे आचार्य धरसेन ने स्वप्न देखा था-दो धवल कर्ण ऋपभ उनके पास आए और उन्हे प्रदक्षिणा देकर उनके चरणो मे बैठ गए हैं। इम शुभमूचक स्वप्न से आचार्य धरसेन को प्रसन्नता हुई। उत्तम पुरुपो के स्वप्न सत्य फलित होते है। आचार्य धरसेन का स्वप्न भी फलवान् वना। दोनो श्रमण शान ग्रहण करने के लिए उनके पास आ पहुचे थे।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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