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________________ २७ विवेक-दर्पण आचार्य वज्रसेन विवेकसम्पन्न आयं वज्रमेन अपने युग के विलक्षण आचार्य थे। युगप्रधान आचार्यों की शृखला मे सवा नौ वर्ष से भी ऊपर उग्न पाने वाले एव सवा मी वर्ष की वृद्धावस्था मे नाचार्य पद को अलत करने वाले प्रथम थे। ___ उनका जन्म वी० नि० ४६२ (वि० २२) में हुआ। उम्र का एक दशक ही पूर्ण नहीं हो पाया, वे त्याग के लिए कठोर पय पर बहने को उत्सुफ बने । पूर्ण वैराग्य के माय वी० नि० ५०१ (वि०म० ३१) मे उन्होने मुनि-जीवन में प्रवेश पाया। आगमो का गम्भीर अध्ययन कर वे जैन दर्शन के विशिष्ट ज्ञाता बने । उत्तर भारत उनका प्रमुख विहार-क्षेत्र था। वीर निर्माण को छठी शताब्दी का उत्तरार्ध महान् मकट का समय था । द्वादश वर्षीय दुकान की काली छाया से पूरा उत्तर भारत भयकर म्प ने आरान्त हो चुका था। यह समय वी० नि०५८० (वि० स० ११०) मे वी०नि० ५६२ (वि० स० १२२) तक था। इस ममय लब्धिधर विलक्षण वाग्मी एव मघ की नौका को कुशलतापूवक वहन करने वाले आर्य वन स्वागे वृद्धावस्था में पहुच चुके थे। जीवन के मध्याकाल मे वे पाच सौ मुनियों के परिवार सहित अनशनार्थ रथावतं पर्वत पर जाने की तैयारी में लगे थे। दुष्काल के इन क्षणो मे मुनिवृन्द से परिवृत आय वनसेन का पदार्पण सोपारक मे हुआ।' सोपारक देश का राजा जितणन एव रानी धारिणी थी। वहा का धनीमानी श्रेष्ठी जिनदत्त धर्म का महा उपासक या। उसकी पत्नी का नाम ईश्वरी था। धृतिसम्पन्न एव विपुल सम्पत्ति का स्वामी होते हुए मी श्रेष्ठी जिनदत्त दुप्काल धर्म के उग्र प्रकोप मे विक्षुब्ध हो उठा था। क्षुधा-पिशाचनी के क्रूर प्रहार से प्रताडित प्ठी का परिवार जिन्दगी की आशा सो चुका था। श्राविका ईश्वरी का धैर्य भी धान्याभाव के कारण डगमगा गया। पारिवारिक जनो ने परस्पर परामर्शपूर्वक सविप भोजन खाकर प्राणान्त करने की बात सोची।' ईश्वरी ने एक लाख स्वर्ण मुद्रा के शालि पकाए। अव वह भोजन में विप मिलाने का प्रयत्न कर रही थी। भिक्षार्थ नगर में पर्यटन करते हुए आर्य वनसेन श्रेष्ठी जिनदत्त के घर पहुचे।' मुनि को देखकर श्राविका ईश्वरी एव जिनदत्त परम प्रसन्न हुए।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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