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________________ अक्षयकोष आचार्य आर्य रक्षित १६३ के सामने पिता सोमदेव मुनि के ये शब्द प्राचीन नग्नत्व परम्परा के प्रति स्पष्ट विद्रोह का उद्घोष था । आरक्षित भी स्थिति - पालक नही थे । वे स्वस्थ परम्परा के पोषक थे । क्रान्तिकारी विचारो के वे सवल समर्थक भी थे । चतुर्मास की स्थिति मे दो पात्र रखने की प्रवृत्ति स्वीकार कर नई परम्परा को जन्म देने का साहस उन्होने किया था। उनके शासनकाल मे सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य अनुयोग व्यवस्था का हुआ । आगम-वाचना का यह अतीव विशिष्ट अग है। उससे पहले आगमो का अध्ययन समग्र नयो एव चारो अनुयोगो के साथ होता था । अध्ययन क्रम की यह जटिल व्यवस्था । अस्थिरमति शिष्यो का धैर्य डगमगा जाता था। आर्यरक्षित के युग अध्ययन की नई व्यवस्था प्रारम्भ हुई। इसमे मुख्य हेतु विन्ध्य मुनि वने थे । विन्ध्य मुनि अतीव प्रतिभासम्पन्न, शीघ्रग्राही मनीषा के धनी थे । आर्यरक्षित शिष्य मडली को जो आगम-वाचना देते विन्ध्य मुनि उसे तत्काल ग्रहण कर लेते थे । उनके पास अग्रिम अध्ययन के लिए बहुत-सा समय अवशिष्ट रह जाता था । आरक्षित से विन्ध्य मुनि ने प्रार्थना की मेरे लिए अध्ययन की व्यवस्था पृथक् रूप से करने की कृपा करे। आर्यरक्षित ने इस महनीय कार्य के लिए महामेधावी दुर्बलका पुष्यमित्र को नियुक्त किया। कुछ समय के वाद अध्यापनरत दुर्वलिका पुष्यमित्र ने आर्यरक्षित से निवेदन किया- " आर्य विन्ध्य को आगम-वाचना देने से मेरे पठित पाठ के पुनरावर्तन मे बाधा पहुचती है। इस प्रकार की व्यवस्था से मेरी अधीत पूर्व ज्ञान की राशि विस्मृत हो जायेगी ।" शिष्य दुर्वलिका पुष्यमित्र के इस निवेदन पर आर्यरक्षित ने सोचा - महामेधावी शिष्य की भी यह स्थिति है । आगम-वाचना प्रदान करने मात्र से अधीत ज्ञान राशि के विस्मरण की सभावना बन रही है। ऐसी स्थिति में आगम ज्ञान का सुरक्षित रहना बहुत कठिन है । दूरदर्शी आर्यरक्षित ने समग्रता से चिन्तन कर पठन-पाठन की जटिल व्यवस्था को सरल बनाने हेतु आगम अध्ययन क्रम को चार अनुयोगो मे विभक्त किया । " इस महत्त्वपूर्ण आगम-वाचना का कार्य द्वादश वर्षीय दुष्काल की परिसमाप्ति के चाद दशपुर मे वीर निर्वाण ५६२ ( वि० १२२ ) के आसपास सम्पन्न हुआ । सीमधर स्वामी द्वारा इन्द्र के सामने निगोद व्याख्याता के रूप मे आर्यरक्षित की प्रशसा, मथुरा मे आर्यरक्षित की प्रतिमा परीक्षा हेतु इन्द्रदेव का वृद्ध रूप मे आगमन, बनावटी वृद्ध की हस्तरेखा देखकर आर्य रक्षित द्वारा देव होने की स्पष्टोक्ति तथा निगोद की सूक्ष्म व्याख्या को सुनकर सुरेन्द्र द्वारा मुनीन्द्र की भूरिभूरि प्रशसा, जाते समय अन्य मुनियो की जानकारी के हेतु सुगधित पदार्थों का वातावरण मे विकीर्णन तथा उपाश्रय द्वार के दिक् परिवर्तन तक की समग्र घटना का विस्तार से आवश्यक नियुक्ति — मलयवृत्ति मे उल्लेख है ।" पन्नवणा सूत्र के
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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