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________________ १४४ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य जू भक देव पूर्व जन्म के मित्र थे। उनके आचार कौशल को देखकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए एव इस समय उन्हे गगन-गामिनी विद्या प्रदान की । सुविनीत आर्य वज्र के पास श्रुत सपदा का गभीर अध्ययन था । एक वार आर्य सिंहगिरि शौचार्थ बाहर गए । माधुकरी मे प्रवृत्त अन्य मुनि भी उस समय उपाश्रय मे नही थे । वाल मुनि आर्य वज्र स्थान पर अकेले थे। नीरव वातावरण से उनके मन में कई प्रकार के भाव जागृत हुए। आगम वाचना प्रदान करने की उत्सुकता जगी । वातावरण को भी सर्वथा अनुकूल पाया। वाचना प्रदान करने के कार्य मे कोई भी वाधक व्यक्ति वहा पर नही था । अपने चारो ओर श्रमणो के उपकरणों को रखकर उन्हे ही श्रमणो का प्रतीक मानकर वाचना प्रदान का कार्य मुनि वज्र ने प्रारंभ किया । मनोनुकूल कार्य मे सहज लीनता आ जाती है। वज्र मुनि भी वाचना प्रदान कार्य में तल्लीन हो गए। उन्हे समय का भी भान न रहा । आर्य सिंहगिरि उपाश्रय के निकट आए। उन्हे मात्रा विन्दु सहित आगम पद्यो का स्पष्ट उच्चारण सुनाई दे रहा था । मधुर-मधुर ध्वनि ने आर्य सिंहगिरि के मन को मुग्ध कर दिया । आगम के प्रत्येक पद्य का अतीव सुन्दर सागोपाग विवेचन सुनकर आर्य सिंहगिरि शिशु मुनि वज्र की प्रतिभा पर आश्चर्यविभोर थे । अप्रकटीकृतशक्ति शक्तोऽपि नरस्तिरस्कृति लभते । निवसन्नन्तर्दारुणि लङ्घ्यो वह्निर्न तु ज्वलित ||१६|| ( उपदेशमाला विशेष वृत्ति, पृ० २१२ ) शक्ति गुप्त रहने पर सबल व्यक्ति भी तिरस्कार को प्राप्त होते है । अन्तfife अग्निक काष्ठ को लाघा जा सकता है, प्रज्वलित काष्ठ को नही । वैयावृत्यादिपु लघोर्माऽवज्ञाऽस्य भवत्विति । ध्यात्वाऽऽहुर्गुरव शिष्यान् विहार कुर्महे वयम् ॥ १२८॥ ( प्रभा० च०, पृ० ६ ) ज्ञान- गुणसम्पन्न आर्य वज्र की योग्यता अज्ञात रहने पर स्थविर मुनियो द्वारा वैयावृत्य आदि कराते समय किसी प्रकार की अवज्ञा न हो इस हेतु से मेरा अन्यत्न प्रस्थान प्रयुक्त होगा । यह सोच दूसरे दिन आर्य सिंहगिरि ने शिष्य समूह को देशान्तर का निर्णय सुना दिया। अध्ययनार्थी मुनियों ने निवेदन किया-"गुरुदेव । हमे वाचना कौन प्रदान करेंगे ?" आर्य सिंहगिरि ने लघु शिष्य मुनि वज्र का नाम वाचना प्रदानार्थ प्रस्तुत किया । " निर्विचार गुरोर्वच " गुरु के वचन अतर्कणीय होते है । विनीत शिष्य ause ने 'तत' कहकर आर्य सिंहगिरि के आदेश को निर्विरोध स्वीकार किया । स्थविर मुनियो से परिवृत आर्य सिंहगिरि का विहार हुआ एव आर्य वज्र ने शिष्य समूह को वाचना देनी प्रारंभ की। लघुवय होने पर भी आर्य वज्र का विशद ज्ञान एव तत्त्व बोध प्रदान करने की पद्धति सुदर थी। मदमति शिष्य भी सुखपूर्वक
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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