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________________ १४२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य करती हुई माता दुष्प्रतिकार्य थी, दूसरी ओर धर्म सघ का प्रश्न था । मुनिजनो की दृष्टि मे माता द्वारा स्वेच्छा एव साक्षीपूर्वक प्रदत्त दान धर्म सघ की सपदा हो चुकी थी । इस जटिल गुत्थी को सुलझाने के लिए राजा ने गंभीर चिंतन किया और उभय पक्ष के सामने उन्होने घोषणा सुना दी "यह वालक स्वरुचि से जिसके पास जाना चाहता है वह उसी का है ।" उस समय पुरुप ज्येष्ठ की मान्यता प्रवल होते हुए भी न्यायी राजा ने मातृ-ममता पर विचार कर वालक को प्रभावित करने के लिए प्रथम अवसर सुनदा को दिया । वह वालक के निकट आयी एव मधुर भोजन तथा क्रीडनार्थ खिलौने देकर उसे अपनी ओर बुलाने लगी। वालक मा की ममता से निरपेक्ष एव उदास बैठा था । सुनदा अपने प्रयत्न मे पूर्ण असफल रही । द्वितीय अवसर पिताश्री मुनि धनगिरि को प्राप्त हुआ। मुनि ने बालक के सामने धर्मध्वज रखा और सरल सहज भाषा मे बोले - " वत्स । तू तत्त्वज्ञ है । कर्म जो को हरण करने वाला यह रजोहरण तुम्हारे सामने है । प्रसन्नमना तू इसे ग्रहण कर । उत्प्लुत्य मृगवत् सोऽथ तदीयोत्सङ्गमागत । तच्चारित्रधरणीभृत || जग्राह चमराभ ५ प्रभा० चरित, पृ० —बालक वज्र मृगशावक की भाति ऊपर उछला एव मुनिजनो के चामराकृति रजोहरण को लेकर उनके उत्सग मे बैठ गया । न्याय मुनि धनगिरि की तुला पर चढ गया । मगल ध्वनिपूर्वक जय-जय रव से दिग्-दिगत गूज उठा। राजा ने सघ को सम्मान दिया । इस समय बालक तीन वर्ष का था । सरल स्वभावी सुनदा ने चिन्तन किया - मेरे सहोदर समित एव प्राणाधार पति दीक्षित हो चुके है एव पुत्र भी श्रमण बनने के लिए दृढ सकल्प कर चुका है। मेरे लिए भी अव यही पथ श्रेष्ठ है । परम विरक्त भाव को प्राप्त सुनदा आर्य सिंहगिरि के पास दीक्षित हुई और श्रमणी समूह मे मिल गयी । श्रमणी सघ की प्रमुखा का नाम - निर्देश नही है । आर्य वज्र की दीक्षा आठ वर्ष की अवस्था मे वी० नि० ५०४ (वि० ३४ ) मे हुई थी। बालक वज्ज्र मुनि कोमल प्रकृति के थे । सहज, नम्र एव आचार के प्रति दृढ निष्ठावान् थे । श्रमण परिवार से परिवृत आर्य सिंहगिरि विहारचर्या में एक वा किसी पर्वत की तलहटी तक पहुच पाए थे । तीव्रधार दुर्निवार वर्षा प्रारम्भ हुई । वादलो की गरज, झपाझप कौधती विजलियो की चमक प्रलयकारी रूप प्रस्तुत कर रही थी । स्वल्प समय मे ही धरा जलाकार दिखाई देने लगी, आवागमन के रास्ते बन्द हो गए। तोय जीवो की विराधना से बचने के लिए श्रमण सघ को गिरि'कन्दरा मे वही रुक जाना पडा । उपदेशमाला के अनुसार इस समय ससंघ आर्य
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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