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________________ सद्धर्म-धुरीण आचार्य सुहस्ती ६६ रक धर्मस्थान तक श्रमणो के पीछे-पीछे चला आया। आचार्य सुहस्ती से श्रमणो ने रक,की ओर सकेत करते हुए कहा-"आर्य | यह दीन मूर्ति रक हमारे से भोजन की याचना कर रहा है।" आर्य सुहस्ती ने गम्भीर दृष्टि से उसको देखा और ज्ञानोपयोग से जानाभावी प्रवचनाधारो यद् रकोऽय भवान्तरे ॥४॥ -परि० पर्व, सर्ग ११ यह रक भवान्तर मे प्रवचनाधार बनेगा। इसके निमित्त से जैन शासन की अतिशय प्रभावना होगी। __ अध्यात्म-स्रोत, अकारण कारुणिक आर्य सुहस्ती ने मधुर स्वर मे सम्मुख उपस्थित दयापान रक को सम्बोधित करते हुए कहा-"मुनि-जीवन स्वीकार करने पर तुम्हे हम भोजन दे सकते है। गृहस्थ को भोजन देना साध्वाचार की मर्यादा से सविहित नही है।" रक को अन्नाभाव के कारण मृत्यु का आलिंगन करने की अपेक्षा इस कठोर सयम-चर्चा का मार्ग सुगम लगा। वह मुनि बनने के लिए तत्काल सहमत हो गया। परोपकार-परायण आर्य सुहस्ती ने महान् लाभ समझकर उसे दीक्षा प्रदान की। कई दिनो के बाद क्षुधाक्रात रक को प्रथम बार पर्याप्त भोजन मिल पाया था। आहार-मर्यादा का विवेक न रहा। मानातिकान्त भोजन उदर मे पहुच जाने से श्वासनलिका मे श्वासवायु का सचार कठिन हो गया। दीक्षा दिन की प्रथम रानि मे ही वह समता भाव की आराधना करता हुआ कालधर्म को प्राप्त हुआ और अवन्ति नरेश अशोक का प्रपौत्र व कुणालपुन सम्प्रति के रूप मे जन्मा। अव्यक्त सामायिक की साधना के फलस्वरूप भवान्तर मे उसे महान् साम्राज्य की प्राप्ति हुई। ___ राजकुमार सप्रति एक दिन राजप्रासाद के वातायन में बैठा था। उसने श्रमणवृन्द से परिवृत आचार्य सुहस्ती को राजपथ पर चलते हुए देखा । पूर्व भव की स्मृति उभर आयी। आर्य सुहस्ती की आकृति उसे परिचित-सी लगी। ध्यान विशेषरूप से केन्द्रित होते ही जातिस्मरण ज्ञान प्रकट हुआ। सम्प्रति ने पूर्व भव को जाना एव प्रासाद से नीचे उतरकर आर्य सुहस्ती को वन्दन किया और विनम्र मुद्रा मे पूछा-"आप मुझे पहचानते है ?" परमज्ञानी आर्य सुहस्ती ने दत्तचित्त होकर चिन्तन किया एव ज्ञानोपयोग से राजकुमार सम्प्रति के पूर्वभव का सम्पूर्ण वृत्तान्त जानकर उसे विस्तारपूर्वक राजकुमार के सामने प्रस्तुत किया। सम्प्रति ने प्रणत होकर निवेदन किया-"भगवन् । उस द्रमुक के भव मे आप मुझे प्रवजित नहीं करते तो जिनधर्म की प्राप्ति के अभाव मे आज मेरी क्या
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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