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________________ ८. सद्गुण - रत्न- महोदधि आचार्य आर्यं महागिरि आर्यं महागिरि मेधावी आचार्य थे । वे जिनकल्प तुल्य साधना करने वाले विशिष्ट साधक थे । उनका जन्म एलापत्य गोत मे वी० नि० १४५ (वि० पू० ३२५) में हुआ । तीस वर्ष की अवस्था में उन्होने भागवती दीक्षा ग्रहण की। उनके गृहस्थ जीवन सम्बन्धी सामग्री नही के बराबर उपलब्ध है । आर्यं महागिरि एव उनके उत्तराधिकारी आर्य सुहस्ती, दोनो का लालनपालन आर्या यक्षा द्वारा होने के कारण उनके नाम के साथ आर्य विशेषण जुडा । ' लोकश्रुति के अनुसार आर्य शब्द की परम्परा यही से प्रारम्भ हुई थी । दीक्षाजीवन स्वीकार कर लेने के बाद अतुल मेधा के धनी आर्य महागिरि ने महा मनीषी आचार्य स्थूलभद्र के उपपात मे दशपूर्वी का ज्ञान अर्जन किया एव अनेक योग्यताओ को सजोया । महागिरि एव सुहस्ती आचार्य स्थूलभद्र से दीक्षित शिष्य ये । जीवन के सन्ध्या काल मे आचार्य स्थूलभद्र ने अपने स्थान पर शान्त, दान्त, लब्धिसम्पन्न, आगमविज्ञ, आयुष्मान्, भक्तिपरायण आर्य महागिरि एव सुहस्ती इन दोनो शिष्यो की नियुक्ति की । इसका कारण उभय शिष्यो का प्रभावशाली व्यक्तित्व ही हो सकता है । उस समय एकतन्त्रीय शासन की परम्परा सवल थी । उभय शिष्यो की नियुक्ति एकसाथ होने पर भी कार्यभार सचालन की दृष्टि से एक-दूसरे का हस्तक्षेप नही था । दीक्षा क्रम मे ज्येष्ठ शिष्य ही आचार्य पद के दायित्व को निभाते थे | आचार्य यशोभद्र एव स्थूलभद्र के द्वारा आचार्य पद के लिए दो-दो शिष्यो की नियुक्ति एकमाय होने पर भी यशस्वी आचार्य यशोभद्र के बाद उनके दायित्व को दीक्षा क्रम मे ज्येष्ठ होने के कारण आचार्य सभूतविजय ने एव आचार्य स्थूलभद्र के वाद उनका दायित्व आचार्य महागिरि ने सभाला था । श्रुत सागर आचार्य मद्रबाहु अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता आचार्य सभूत विजय के अनुशासन को एव आर्य सुहस्ती आर्य महागिरि के अनुशासन को सुविनीत शिष्य की भाति पालन करते रहे थे । निशीथ चूर्णिकार के अभिमत से आचार्य स्थूलभद्र के बाद आचार्य पद का
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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