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________________ तेजोमय नक्षत्र आचार्य स्थूलभद्र ८५ प्रतिष्ठित एव राज्य का स्वयं सचालन करता हुआ भी राजपुरुप राजा के द्वारा अनुशानित होता है। परानुशासित व्यक्ति को सुखानुभूति कहा है ? सर्वतो भावेन राज्य में समर्पित होने पर भी छिद्रान्वेषी पिशुन लोग उसके मार्ग मे उपद्रव प्रस्तुत करने को तत्पर रहते हैं।" आचार्य स्थूलभद्र की आखो के सामने अतीत का चित्र घूमने लगा । श्रीयक के विवाहोत्सव प्रसग मे राजा नन्द के सम्मान हेतु निर्मित राजमुकुट, छत, चामर, विविध शस्त्र आदि की सूचना पाकर दम्भी वररुचि के द्वारा रचा गया षड्यन्त्र नन्द के हृदय मे महामन्त्री शकटाल पर राज्य को छीन लेने का सदेह, राजा के "विक्षेप मे झाकता समग्र मली परिवार को भी लोल लेने वाला विनाशकारी रूप, लघु भ्राता श्रीयक द्वारा राजा नन्द के सामने उनके विश्वासी मत्री की हत्या आदि विविध प्रमगो को स्मृति मात्र से स्थूलभद्र काप गए। वे परम विरक्ति को प्राप्त हुए। और सयम-पथ अगीकार करने का निर्णय लेकर लुचित मस्तक साधुमुद्रा मे स्थूलभद्र राजा नन्द की सभा में पहुचे । स्थूलभद्र के विचारो को समझकर जनता अवाक् रह गयी । श्रीयक ने भी निर्णय को बदल लेने के लिए उनसे अनुरोध किया पर न्थूलभद्र अपने सक्रूप मे दृढ थे । वे धीर - गम्भीर मुद्रा मे बन्धु परि के मोह में विमुख वन अज्ञात दिशा की ओर वढ चले । कही हमे धोखा देकर -गणिका कोशा के भवन मे पुन. नही पहुच रहा है, यह सोच मगध नरेश प्रासादनगवाक्ष से आर्य म्यूलभद्र के वढते चरणो पर दृष्टि टिकाए रहे। वृक्षो की कतारो के बीच से निर्जन वन की ओर आर्य स्थूलभद्र के गमन को देखकर उन्हें अपने अन्यथा चिन्तन के प्रति अनुताप हुआ । नागरिक जनो को कई दिनो तक स्थूलभद्र की स्मृति मतानी रही । अमात्य पद का दायित्व श्रीयक के कन्धो पर आया । मगध नरेश जो सम्मान महान् अनुभवी, राजनीतिकुशल, अनन्त विश्वासपात्र, राजभक्त, प्रजावत्सल अमात्य शकटाल को प्रदान करता या वही सम्मान श्रीयक को देने लगा । महामात्य पद के लिए श्रीयक जैसे समर्थ व्यक्ति की उपलब्धि से राज्य मे पुन चार चाद लग गए ये पर महामात्य शकटाल के अभाव मे राजा नन्द के हृदय में महान् दुखथा । शोकसतप्त मुद्रा मे एक दिन मगध नरेश ने श्रीयक के सामने मभा मे मत्री के गुणो का स्मरण करते हुए कहा भक्तिमा शक्तिमान्नित्य शकटालो महामति अभवन्मे महामात्य शक्रस्येव बृहस्पति ||८|| एवमेव विपन्नोऽसो दैवादद्य करोमि किम् । मन्ये शून्यमिवास्थानमह तेन विनात्मन ||६|| (परिशिष्ट पर्व, सर्ग ८ ) -भक्तिमान, शक्तिमान, महामति, महामात्य शकटाल शक्र के सामने वृहस्पति
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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