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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ भद्रबाहरग्रिमः समग्रबुद्धिसम्पदा, सु शब्द सिद्धशासनं सुशब्द-बन्ध-सुन्दरम् । इख-वृत्त-सिद्धिरन्नबद्ध कर्मभित्तपो, वृद्धि-वधिन-प्रकीतिरुद्दधे महधिक : ।। यो भद्रबाहु श्रुतकेवलीना मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । अपश्चिमोऽभूद्विदुषां विनेता, सर्वश्रुतार्थप्रतिपादनेन ॥ श्रवण बेलगोल शिला० १०८ पण्डवर्धन देश में देवकोट नाम का एक नगर था. जिसका प्राचीन नाम 'कोटिपर' था। इस नगर में मोम शर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमश्री था, उससे भद्रबाहु का जन्म हुआ था। वालक स्वभाव से ही होनहार और कुशाग्रबुद्धि था। उसका क्षयोपशम और धारणा शक्ति प्रबल थी। प्राकृति सौम्य और सन्दर थी। वाणी मधर और स्पष्ट थी। एक दिन वह बालक नगर के बाहर अन्य बालकों के साथ गंटों (गोलियों) मे खेल रहा था। खेलते-खेलते उसने चौदह गोलियों को एक पर एक पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया। ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार) के भगवान नेमिनाथ की यात्रा से वापिस आते हए चतुर्थ श्रतकेवली गोवर्धन स्वामी संघ सहित कोटि ग्राम पहुंचे। उन्होंने बालक भद्रबाहु को देखकर जान लिया कि यही बालक थोड़े दिनों में अन्तिम श्रुतकेवली और घोर तपश्वी होगा। अतः उन्होंने उस बालक से पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है, और तुम किसके पुत्र हो। तब भद्रबाहु ने कहा कि मैं सोमशर्मा का पुत्र हूं। और मेरा नाम भद्रबाहु है। प्राचार्य श्री ने कहा, क्या तुम चलकर अपने पिता का घर बतला सकते हो? बालक तत्काल प्राचार्य थो को अपने पिता के घर ले गया। प्राचार्यश्री को देखकर सोम शर्मा ने भक्ति पूर्वक उनकी वन्दना की। और बैठने के लिए उच्चासन दिया। प्राचार्य श्री ने सोम शर्मा से कहा कि आप अपना बालक हमारे साथ पढ़ने के लिए भेज दीजिए । सोम शर्मा ने प्राचार्यश्री से निवेदन किया कि बालक को आप खुशी से ले जाइए। और पढाइए। माता-पिता की प्राज्ञा से प्राचार्यश्री ने बालक को अपने संरक्षण में ले लिया। और उसे सर्व विद्यायें पढाई। कुछ ही वर्गों में भद्रबाह सब विद्यानों में निप्णात हो गया। तब गोवर्द्धनाचार्य ने उसे अपने माता-पिता के पास भेज दिया। माता-पिता उमे सर्व विद्या सम्पन्न देखकर अत्यन्त हपित हए। भद्रबाह ने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मागी, और वह माता-पिता की आज्ञा लेकर अपने गुरु के पाम वापिस आ गया। निष्णात बुद्धि भद्रबाहुं ने महा वैराग्य सम्पन्न होकर यथा समय जिन दीक्षा ले ली। और दिगम्बर साधु बनकर आत्म-माधना में तत्पर हो गया। ___ एक दिन योगी भद्रवाहु प्रात काल कायोत्सर्ग में लीन थे कि भक्तिवश देव असुर और मनुष्यों से पजित हए। गोवर्द्धनाचार्य ने उन्हें अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित कर, संघ का सब भार भद्रबाहु को सौप कर निःशल्य हो गए। और कुछ समय बाद गोवर्द्धन स्वामी का स्वर्गवास हो गया। गुरु के स्वर्गवास के पश्चात् भद्रबाहु सिद्धि सम्पन्न मुनि पुगव हुए । कठोर तपस्वी और प्रात्म-ध्यानी हुए। और मघ का सब भार वहन करने में निपुण थे। वे चतुर्दश पूर्वधर और अप्टाग महानिमित्त के पारगामी श्रुतकेवली थे। अपने सघ के साथ उन्होंने अनेक देशों में विहार धर्मोपदेश द्वारा जनता का महान् कल्याण किया। भद्रबाह श्रतवली यत्र-तत्र देशों में अपने विशाल संघ के साथ विहार करते हए उज्जैन पधारे, और सिप्रा नदी के किनारे उपवन मे टहरे । वहा सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने उनकी वन्दना की, जो उस समय प्रातीय उप राजधानी में ठहरा हुआ था ! एक दिन भद्रबाहु आहार के लिए नगरी में गए। वे एक मकान के प्रागन में प्रविष्ठ हुए। जिसमें कोई मनुष्य नही था; किन्तु पालना में झूलते हुए एक बालक ने कहा, मुने ! तुम यहा से शीघ्र चले जाओ, चले जानो। तब भद्रबाह ने अपने निमित्तज्ञान से जाना कि यहा बारह वर्ष का भारी दुभिक्ष पड़ने वाला है। बारह वर्ष तक वर्षा न होने से अन्नादि उत्पन्न न होगे। और धन-धान्य से समृद्ध यह देश शून्य हो जाएगा पौर भूख के कारण मनुष्य-मनुष्य को खा जाएगा। यह देश राजा, मनुष्य और तस्करादि से विहीन हो जाएगा। ऐसा जानकर पाहार लिए बिना लौट पाए और जिन मदिर में प्राकर आवश्यक क्रियाएं सम्पन्न की। पौर अप
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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