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________________ द्वादशांग श्रुत और श्रुतकेवली श्रुतावरण कर्म के क्षयोपशय होने पर जो सुना जाय वह श्रु त है। यह श्रु तज्ञान अमृत के समान हितकारी है. और विषय-वेदना से संतप्त प्राणि के लिये परम औषधि है, जन्म मरण स्प व्याधि का नाशक तथा सम्पूर्ण दुःखों का क्षय करने वाला है। जैसा कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के दर्शन पाहुड की निम्न गाथा से प्रकट है : जिण वयण मोसहमिणं विसय-सुहं विरमणं अमिदभूयं । जर-मरण-वाहि-हरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ समस्त द्रव्य और पर्यायों के जानने की अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों समान हैं, किन्तु उनमें अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञान ज्ञेयों को प्रत्यक्ष रूप से जानता है, और श्रुतज्ञान परोक्ष रूप से जानता है। जैसा कि गोम्मटमार की निम्न गाथा से स्पष्ट है : सुद केवलं च णाणं दोण वि सरिसाणि होति बोहादो। सुदणाणं तु परोक्खं पच्चक्खं केवलं गाणं ॥ गोम्मटसार जीव काण्ड गाथा ३६८ केवलज्ञान और स्याद्वादमय श्रुतज्ञान समस्त पदार्थो का समान रूप से प्रकाशक है। दोनों में प्रत्यक्ष परोक्ष का अन्तर है। वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी अर्हत तीर्थकर के मुखारविन्द से सुना हुआ ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। तीर्थकर अपने दिव्य ज्ञान द्वारा पदार्थो का साक्षात्कार करके वीजपदों द्वारा उपदेश देते हैं। उस श्रुत के दो भेद हैं, द्रव्यथ त और भावथत । गणधर उन बीजपदों का और उनके अर्थ का अवधारण करके उन व्याख्यान करते है । यही द्रव्य थु त कहलाता है । प्राप्त की उपदेशरूप द्वादशांग वाणी को द्रव्य श्रुत कहा जाता है । और उससे होने वाले ज्ञान को भावश्रुत कहते है। जिस तरह पुरुष के शरीर में दो हाथ, दो पैर, दो जाँघ, दो उरु, एक पीठ, एक उदर, एक छाती, और एक मस्तक ये बारह अंग होते हैं, उसी प्रकार श्रुत- ज्ञान रूप पुरुष के भी बारह अंग है । द्रव्य श्रुत के दो भेद है, अंग प्रविष्ट और अंग वाह्य । . अंग प्रविष्ट श्रुत के बारह भेद हैं । १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग ४. समवायांग, ५ व्याख्या प्रज्ञप्ति, ६. ज्ञातृ धर्मकथा, ७. उपासकाध्ययनॉग, ८. अन्तः कृतदशांग, ६. अनुत्तरोपपादिक, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाकसूत्राग, और १२. दृप्टिवादांग। प्राचारांग-इसमें अठारह हजार पदों के द्वारा मुनियों के प्राचार का वर्णन किया गया है । कधं चरे कधं चिटु कधमासे कधं सये। कधं भुजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झई ।। १. श्रतावरणक्षयोपशमाद्यन्तरङ्गवहिरङ्गमन्निधाने सति श्रूयते म्मेतिश्रुतम् (-तत्त्वा० वा. १-६, २ पृ० ४४ ज्ञानपीठ संस्करण) २. स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्व प्रकाशने । भेद: साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्तवन्यतमं भवेत् ।। -प्राप्त मीमांसा १०५
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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