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________________ ३६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ निश्चल रहे और अनित्यादि भावनाओं का दृढ़ता से मनन करते हुए शरीर से भिन्न निजात्म तत्त्वका, चैतन्य टंकोत्कीर्ण और ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाले आत्म तत्व का चिन्तवन करते हुए, शारीरिक बाधाओं की ओर ध्यान न देते हुए, निर्भय हो चार प्रकार का सन्यास धारण कर व्रत रूपी खड्ग से मोह शत्रु का नाश कर आराधना में स्थित रहे और निर्वाण प्राप्त किया ।" अन्य साधुओं ने भी परिणामानुसार यथा योग्य स्थान प्राप्त किए । इससे स्पष्ट है कि ताम्रलिप्त नगरी विद्युतचर का निर्वाण स्थल है और उनके साथी साधुनों का समाधि स्थल है। ऐसी स्थिति में मथरा जम्बू स्वामी ओर विद्युच्चर का निर्वाण स्थल नही सकता । मथुरा जम्बूस्वामी का निर्वाण स्थल नहीं है मथुरा एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। इस नगर मे जैन, वैष्णव और वौद्धादि भारतीय धर्मो का प्राचीन काल से घनिष्ट सम्बन्ध रहा है । यह यदुवंशी कृष्ण की लीला भूमि रहा है । कुषाण काल में यहाँ कई बौद्ध विहार थे । उत्तरापथ में यह जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है। महावीरकालीन जनपदों, प्रमुख राज्यों और राजधानियों में इसकी गणना रही है । दक्षिण के जैनाचार्यों ने दक्षिण मथुरा से भेद प्रकट करने के लिए इसे उत्तर मथुरा नाम से उल्लेखित किया है । निशीथ चूर्णी की एक गाथा में- "उत्तरावहे धम्मचक्कं मथुराए देव णिम्मिमो भूभो।" वाक्य में मथुरा के देव निर्मित स्तूप का उल्लेख किया है । २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथ का यहाँ विहार हुआ और उनकी स्मृति में उक्त स्तूप बनवाया गया था। सम्भवतः सातवीं आठवी शताब्दी ई० पूर्व उस देवनिर्मित स्तूप को ईंटों से ढक दिया गया था। मथुरा के कंकाली टीले से जैन पुरातत्त्व की महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है। उसमें अनेक कलाकृतियाँ मह्त्वपूर्ण हैं । यहाँ दिगम्बर जैनों के ५१४ स्तूप रहे हैं, जिनका जीर्णोद्धार साहू कराया था, जो बादशाह अकबर की टकसाल का अध्यक्ष था, और कृष्णामगल चौधरी का मंत्री भी था। उसने द्रव्य खर्च करके सं० १६३१ में उनकी प्रतिष्ठा पाण्डे राजमल्ल से करवाई थी। इन सब कारणों से मथुरा जैन संस्कृति का मौलिक स्थान रहा है। पर वह क्या जम्बूस्वामी का निर्वाण स्थान था ? उस पर यहाँ विचार किया जाता है— महराये प्रति वीरं पासं तहेव वंदामि । जम्बु मुणिदो वंदे णिव्वुई पत्तो वि जम्बूवणगहणे ॥ दशभक्त्यादि संग्रह में प्रकाशित प्राकृत निर्वाण भक्ति के अनन्तर कुछ पद्य और भी दिये हुए हैं, जो प्रक्षिप्त है और बाद को उसमें संग्रहीत कर लिये गए हैं। उनमें से उक्त तृतीय पद्य में मथुरा और प्रहिक्षेत्र में भगवान महावीर और पार्श्वनाथ की वन्दना करने के पश्चात् जम्बू नाम के गहन वन में अन्तिम केवली जम्बू स्वामी १. ताम्रलिप्त पुरस्यास्य समीपे परिधोरणम् । तस्थौ पश्चिम दिग्भागे नक्त प्रतिमया मुनि ॥ एव स्थिते मुनौ तत्र रात्रौ देवतया तया । एषा देशोत्सर्गोऽय विहितः क्रूरचित्तया । नाना देशोपसर्ग तं सहित्वा मेरुनिश्चल: । समाधानान्निर्वाणमगमद्रुतम् ॥ विद्युच्चर: - हरिषेण कथाकोश कथा १३८ २. 'सावष्टम्भमष्टान्ही मथुरायाचक्रचरण परिभ्रमय्यार्हत्प्रतिबिम्बाङ्कित मेक स्तूपं तत्रा तिष्ठियत् । श्रतएवाद्यापि तत्तीर्थं - उपासकाध्ययन प्रे० ६३ देवनिर्मिताख्यया प्रथते ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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