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________________ ५४८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ ___ यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे । इन्होंने सम्वत् १६२२ वैशाख सुदी ३ सोमवार के दिन एक मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी । इनका समय १७वीं शताब्दी है। मट्टाकलंकदेव यह मूलसंघ देशीयगण पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के चारुकीर्ति पंडिताचार्यका शिष्य था। इसने अपने गरु का परिचय निम्न वाक्यों में दिया है-"मलसंघ-देशीयगण-पुस्तकगच्छ-कदकुन्दान्वय-विराजमान श्रीमद्रायराज गरु मण्डलाचार्य महावादि वादीश्वर वादिपिता मह सकल बिद्वज्जन चक्रवतिबल्लालराय जीवरक्षापालकेत्यादि अनेकान्वित बिरुदावली विराजमान श्रीमच्चारुकीर्ति पण्डितदेवाचार्य शिष्य परम्परापात श्री संगीतपुर सिंहासन पटाचार्य श्रीमदकलंक देवनु"। कवि की एकमात्र कृति 'कर्णाटक शब्दानुशासन' नाम का व्याकरण है । जिसे कवि ने शक सं० १५२६ (ई. सन् १६०४) में निर्मित किया है। विलेगियाताल के एक शिलालेख से इसको परम्परा विषयक कुछ बातें ज्ञात होती हैं। देवचन्द्र ने अपनी 'राजावली कथे' में लिखा है कि सुधापुर के भट्टाकलंक स्वामी सर्वशास्त्र पढ़कर महा विद्धान हुए । इन्होंने प्राकृत संस्कृत मागधी प्रादि षट् भाषाकवि हो कर कर्णाटक व्याकरण की रचना की। यह कनड़ी भाषा का व्याकरण है इसमें ४ पाद और ५६२ सूत्र हैं। इन सूत्रों पर भाषा मंजरी नाम की इति पर मजरीमकरंद नाम का व्याख्यान है। सूत्र, वृत्ति, और व्याख्यान तीनों ही संस्कृत में हैं। प्राचीन कनडी वियों के ग्रन्थों पर से अनेक उदाहरण दिये हैं । कर्णाटक भाषा भूषण की अपेक्षा यह विस्तृत व्याकरण है । यह कनड़ी भाषा का अच्छा व्याकरण है। कवि ने इसमें अपने से पूर्ववर्ती निम्न कवियों-पंप, होन्न, रन्न, नागचन्द्र, नेमिचन्द्र, रूद्रभट्ट, पागल, मंडय्य, मधुर का स्मरण किया है। कवि का समय ईसा की १७वीं शताब्दी का प्रथम चरण (१६०४) है । (कर्नाटक कवि चरित) कवि भगवतीदास यह काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्कर गण के विद्वान भट्टारक गुणचन्द्र के पट्टधर भ. सकलचन्द्र के प्रशिष्य और भटटारक महेन्द्रसेन के शिष्य थे । महेन्द्र सेन दिल्ली की भट्टारकीय गद्दी के पट्टधर थे। इनकी प्रभी तक कोई रचना देखने में नहीं माई । और न कोई प्रतिष्ठित मूर्ति ही प्राप्त हुई है। इससे इनके सम्बन्ध में विशेष विचार करना सम्भव नहीं है। भ० महेन्द्र सेन प्रस्तुत भगवतीदास के गुरु थे, इसीसे उन्होंने अपनी रचनामों में उनका मादर के साथ स्मरण किया है। यह बूढ़िया जिला अम्बाला के निवासी थे। इनके पिता का नाम किसनदास था और जाति अग्रवाल और गोत्र वंसल था। इन्होंने चतुर्थ वय में मुनिव्रत धारण कर लिया था । यह संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंश १. संवत १६२२ वैशाख सुदि ३ सोमे श्री कुन्दकुन्दान्वये......."भ. श्री विजयकीर्ति देवाः तत्पभ. श्री शुभचंद्र देवाः तत्प भ० सुमतिकीर्ति गुरूपदेशात् हुवंड ज्ञातीय गा रामा भार्या वीरा...। अनेकान्त वर्ष ४१०५०३ २. बठिया पहले एक छोटी सी रियासत थी, जो मुगल काल में धन-धान्यादि से खूब समृद्ध नगरी थी। जगाधरी के वस जाने से बढ़िया की अधिकांश आबादी वहाँ चली गई। पाजकल वहां खण्डहर अधिक हो गये हैं, जो उसके गत वैभव की स्मृति के सूचक हैं। ३. गुरुमुनि माहिदसेन भगोती, तिस पद-पंकज रन भगोती। किसनदास वरिणउ तनुज भगोती, तुरिये गहिउ व्रत मुनि जु भगोती॥ नगर दूढिये वसै भगोती, जन्मभूमि है मासि भगोती। अग्रवाल कुल वंसल गोती, पण्डित पदजन निरख भगोती॥८३ -वृहत्सीतासतु, सलावा प्रति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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