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________________ १५वीं, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि अच्छे विद्वान, तार्किक और वादी रूप में प्रसिद्ध थे। इनका उल्लेख शक सं० १४५२ (ई० सन् १५३०) में उत्कीर्ण हए हम्बच्चके नगर ताल्लुक लेख न०४६ में हुया है। वर्द्धमान मुनीन्द्र ने, जो इन्हीं विद्यानन्द के शिष्य और बन्ध थे, उन्होंने शक सं० १४६४ (सन् १५४२) में रामाप्त हा दशभक्तयादि महाशास्त्र में उनका खुब स्तवन किया है। यह विद्यानन्द विजय नगर साम्राज्य के समकालीन है। इन्होंने गजराज, देवराज, कृष्णराज आदि अनेक राजानों की सभा में जाकर शास्त्रार्थ किये ग्रार उनमें विजय प्राप्त कर यश और प्रतिष्ठा प्राप्त को । इन्होंने गेरुसोडये, कोयण और श्रवण बेलगोल याद स्थाना में अनेक धार्मिक कार्य सम्पन्न किये। इनके देवेन्द्र कीति, वर्द्धमान मुनीन्द्र आदि अनेक शिप्य थे। इनमें वर्द्धमान मुनीन्द्र ने दशभक्तयादि महाशास्त्र और वरांग चरित की रचना की है। स्वर्गीय आर० नसिहाचार्य का अनुमान है कि ये विद्यानन्द भल्लातकी पुर (गैरसोप्पे) के निवासी थे। और इन्होंने 'काव्यसार' के अतिरिक्त एक और ग्राथ की रचना की थी। इनका स्वर्गवारा शक सं० १४६३ (मन् १५४१) में हुया था जैसा कि दशभक्तयादि महाशास्त्र के निम्न वाक्य से प्रकट है : "शोक वेद खराब्धि चन्द्र कलिते सवत्सरे शावरे, शद्ध श्रावणभाककृतान्त मेये धरणोतुग्मंत्र खो। ककिस्थे समुरी जिनरमरणतो वारीन्द्रवन्दाचितः। विद्यानन्द मुनीश्वरः सगतवान स्वर्ग चिदानन्दकः । -प्रशस्तिसं० १० १२८ ब्रह्म कामराज मूलसंघ बलात्कार गण के भट्टारक पद्मनन्दः के. अन्वय में हुए हैं। यह भटटारक सकलभूषण के प्रशिष्य और नरेन्द्र कीति के शिप्य ब्रह्म महलाद वर्णी के शिष्य थे । इन्होंने भट्टारक सकलकोति के आदि पुराण को देखकर मेवाड में शक सं० १५५५ फाल्गुन महीने में (सन् १६३३ वि० सं० १६६१) में जय पुराण नाम के ग्रन्थ की रचना की है। रचना साधारण है । कवि का समय विक्रम की १७वी शताब्दी है। ब्रह्म रायमल्ल इनका जन्म हंबड वंश में हया था। इनके पिता का नाम 'मा' और माता का नाम चम्पादेवी था। यह जिन चरणो के उपासक थे। इन्होंन महामागर के तट भाग में समाश्रित ग्रीवापुर के चन्द्रप्रभ जिनालय में वर्गीकर्मसी के वचनों मे 'भक्तामर स्तोत्र को वत्ति स० १६६७ में प्राषाढ शक्ला पंचमी बुद्धवार के दिन बनाई थी। ब्रह्म रायमल्ल मुनि अनन्तकीर्ति के शिष्य थे, जो भट्टारक रत्नकीर्ति के पट्टधर थे। इनकी हिन्दी गुजराती मिथित ७-८ रचनाए उपब्ध :- नेमीश्वररास, हनुमन्त कथा, प्रद्युम्नचरित, सुदर्शनसार, निर्दोषसप्तमी व्रत कथा, श्रीपालगस और भविष्यदत्त कथा। इनका समय १७वीं शताब्दी है। - १. देखो, अनेकान्त वर्ष २६ किरण २ पृ० ८२ २. प्रशस्तिसंग्रह पृ० १४४ ३. राष्ट्रम्य नत्पुराण शक मनुजपतेर्मेदपाटम्य पुर्या । पश्चामंवत्सरस्य प्ररचितपटतः पंच पंचाशतो हि । अभ्राभ्राक्षकसवच्छरनिविय नः (१५५५) फाल्गुणे मामि पूर्णे। मुख्यायामोदयायो सुकविनपिनो लालजिष्णोश्च वाक्यात् ॥ जैनग्रन्थ प्र० पृ. ३६ ४. मप्तषप्ठयंकित वर्षे षोडश ख्ये हि संवते (१६६७) । आषाढे श्वेत पक्षस्य पंचम्यां बुधवारके ॥ ग्रीवापूरे महासिंधो स्तटभागं समाथिते । प्रस्तुंगदुर्ग-संयुक्ते श्रीचन्द्रप्रभसपनि ॥ वणिनः कर्मसीनाम्नोवचनात् मयकाइरचि । भक्तामरस्य सद्वृत्तिः रायमल्लेनवणिनाः ॥१. जैन ग्रन्थ प्र०प०१..
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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