SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५वी, १६, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५३३ यह ग्रन्थ सुगम संस्कृत में लिखा गया है । वादिचन्द्र के शिष्य सुमतिसागर ने वि० सं० १६६१ में व्यारा (नगर) में लिखा था " । श्रीपाल श्राख्यान - यह एक गीतिकाव्य है जो गुजराती मिश्रित हिन्दी भाषा में है, और जिसे कवि ने सं० १६५१ में सघपति धनजी सवा की प्रेरणा से बनाया था । पाण्डव पुराण - इस ग्रन्थ में पाण्डवों का चरित अकित किया गया है जिसको रचना कवि ने वि० सं० में 'समाप्त की है। १६५४ वेद वाण षडब्जांके वर्षे नभसि मासके । बोधका नगरेऽकारि पाण्डवानां प्रबन्धकः ॥ - तेरापंथी बड़ा मन्दिर, जयपुर यशोधर चरित - इसमे यशोधर का जीवन-परिचय दिया हुआ है । कवि ने इस ग्रन्थ को अकनेश्वर (भरांच) के चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर मे वि० स० १६५७ में रचा है । एक पंच - षडैकांक वर्षे नभसि मासके । मुदाकथामेनां वादिचन्द्रो विदांवरः ॥ इनके अतिरिक्त कवि की होलिका चरित प्रोर ग्रम्विका कथा दो रचनाएं वतलाई जाती है, जो मेरे देखने में नहीं आई । आदित्यवार कथा यार द्वादश भावना हिन्दी की रचनाएं है । एक दो गुजराती रचनाएं भी इनकी कही जाती है । कवि का समय १७वी शताब्दी है । 1 कवि राजमल्ल काष्ठा सघ माथरगच्छ पुष्करगण के भट्टारकों की आम्नाय के विद्वान् थे उस समय पट्ट पर भ० खमकोर्ति विराजमान थे । कवि राजमल्ल १७वी शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान और कवि थे । व्याकरण, सिद्धान्त, छन्द शास्त्र र स्याद्वादविद्या में पारगत थे । स्याद्वाद और अध्यात्मशास्त्र के तलस्पर्शी विद्वान थे। राजमल्ल ने स्वय लाटी सहिता का संघिया में अपन का स्याद्वादानवद्य गद्य-पद्य-विद्या विशारद विद्वन्मणि' लिखा है' । कुन्दकुन्दाचाय के समयसारादि ग्रन्थों के गहरे अभ्यासी थे । उन्होने जन मानस में अध्यात्म विषय को प्रतिष्ठित करन के १. विहाय पद काठिन्य सुगमेर्वचनोत्करैः । चकार चरितं साध्व्या वदिचन्द्रोऽल्पमेधसाम् ॥ इति भट्टारक प्रभाचन्द्रानुचरमूरि श्री वादिचन्द्र विरचितं नवमः परिच्छेदः समाप्तः ॥ स० १६६१ वर्ष फाल्गुन मासे सुदि पचम्यां तिथी श्री व्यारा नगरे शान्तिनाथ चैत्यालये श्री मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वये भ० ज्ञानभूपणाः भ० श्री प्रभाचन्द्राः भ० वादिचन्द्रस्य शिष्य ब्रह्म श्री सुमतिसागरेण इद चरित लिखितं ज्ञानावरणीय कर्मक्षयार्थमिति । २. संवत् सोल एकावना वर्षों कीधां य् परबंधजी । भवियन थिर मन करीने सुराज्यो नित सबध जी ॥ दान दीजे जिन पूजा कीजे समकित मन राखिजे जी । सूत्रज भणिए नवकार वणिए असत्य न विभषिजे जी ॥ १० लोभव तजी ब्रह्म धरीजे सॉभल्यानुं फल एह जी ।। ए गीत जे नरनारी सुरण से अनेक मंगल तरु गेह जी ॥११ संघपति धनजी सवा वचनें कीधोए परबंध जी ॥ केवली श्रीपाल पुत्र सहित तुम्ह नित्य करो जयकार जी ॥ १२ ३. इतिश्री स्याद्वादानवद्य गद्यपद्य विद्याविशारद - राज मल्ल विरचितायां श्रावकाचारापर नाम लाटीसंहितायां साधुदात्मज - फामनमनः सरोजारविदविकाशनैक मार्तण्ड मण्डलायमानायां कथामुख वर्णनं नाम प्रथमः सर्गः ॥
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy