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________________ १५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वी शत्राब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५२९ इनके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ मेरे अवलोकन में नहीं पाए, इससे उनके सम्बन्ध में लिखना कुछ शक्य नहीं है । पूजा ग्रन्थ भी सामने नही हैं इसलिए उनका परिचय भी नहीं दिया जा सकता। कवि की संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त अनेक हिन्दी रचनाएँ भी हैं जिनके नाम यहाँ दिए जाते हैंमहावीर छन्द (स्तवन २७ पद्य) विजयकीति छन्द, तत्त्वसार दूहा, नेमिनाथ छन्द आदि । भ० शुभचन्द्र का कार्यकाल सं० १५७३ (सन् १५१६) से १६१३ (सन् १५५६) ४० वर्ष रहा है । इनके अनेक शिष्य थे-श्रीपालवी, सकलचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र और सुमतिकीर्ति आदि । इनका समय १६वीं और १७वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। अमरकोति यह मूल संघ सरस्वतो गच्छ के भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य थे। मल्लिभूषण मालवा की गद्दी के पट्टधर थे । इन्हीं के समकालीन विद्यानन्दि अोर श्रुतसागर थे। अमरकीति ने जिन सहस्र नाम स्तोत्र की टीका प्रशस्ति में विद्यानदि और श्रतसागर दोनों का आदरपूर्वक स्मरण किया है। इनको एकमात्र कृति जिन सहस्रनाम टीका है । प्रशस्ति में रचनाकाल दिया हुआ नही है। फिर भी अमरकोति का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है। टीका अभी अप्रकाशित है उमे प्रकाश में लाना चाहिए । अमरकीति की यह टीका भ० विश्वसेन द्वारा अनुमोदित है। ___वीर कवि या बुधवीर कवि का वंश अग्रवाल था और यह साहू तोतू के पुत्र थे तथा भट्टारक हेमचन्द्र के शिष्य थे । संस्कृत भाषा के विद्वान और कवि थे। इनकी दो कतियाँ मेरे देखने में आई हैं वहत्सिद्धचक्र पूजा और धर्मचक्र पजा। वहत्सिद्धचक्र पूजा-यह सिद्धचक्र की विस्तृत पूजा है । पं० जिनदास काप्ठा संघ माथुरान्वय और पुष्करगण के भटारक कमलकीति, कुमुदचन्द्र और भट्टारक यशमेन के अन्वय में हए हैं। यशसेन को शिप्या राजश्री नाम की थी. जो मंयम निलया थी। उसके भ्राता पद्मावती पुरवाल वंश में समुत्पन्न नारायण सिंह नाम के थे, जो मनियों को दान देने में दक्ष थे। उनके पुत्र जिनदास नाम के थे, जिन्होंने विद्वानों में मान्यता प्राप्त की थी। इन्हीं पंडित जिनदास के आदेश मे उक्त पूजा-पाठ रचा गया है। जिसे कवि ने वि० सं० १५८४ में दिल्ली के बादशाह बाबर के राज्यकाल में रोहितासपुर (रोहतक) के पार्श्वनाथ मन्दिर में बनाया है ।। धर्मचना पूजा-१स पूजा-पाठ को भी उक्त पद्मावती पुरवाल पडित जिनदास के निर्देश से रोहितासपुर के पार्श्वनाथ जिन मन्दिर में अग्रवाल वंशी गोयल गोत्री साधारण के पुत्र साहू रणमल्ल के पुत्र मल्लिदास के लिए बनाया गया है। टमकी श्लोक संख्या ८५० है। इसे कवि ने सं० १५८६ में पूम महीने के शक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन समाप्त किया है । इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि ने नन्दीश्वर पूजा और ऋषिमंडल यंत्र पूजा-पाठ की भी रचना की है। ये दोनों पूजा ग्रन्थ मेरे देखने में नहीं आए, इसी से उनका परिचय नहीं दिया। इनके अतिरिक्त कवि की अन्य क्या कृतियाँ हैं वह अन्वेषणीय है। कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है। १. वेदाष्टवाण शशि-संवत्सर विक्रमनपाद्वहमाने । रुहितासनाम्नि नगरे बर्बर मुगलाधिराज-सद्राज्ये ॥? श्रीपाश्वं चैत्यगेहे काष्ठा संघे च माथुरान्वयके ।। पुष्करगणे बभूव भट्टारकमरिणकमल कीाह्वः ॥ २ (सिद्ध० पू०प्र०) २. चन्द्रबाणाष्ट षष्ठांकः (१५८६) वर्तमानेषु सर्वतः । श्री विक्रमनपान्नूनं नय विक्रमशालिनः ॥८॥ पौष मासे सिते पक्षे षष्ठींदु दिन नामके । रुहितामपुरे रम्ये पार्श्वनाथस्य मन्दिरे ॥६॥ -धर्मचक्र पूजा प्र०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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