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________________ ५२६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० स० १५८७ की कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन मुगल बादशाह बाबर' के राज्यकाल में योगिनीपुर में बनाकर समाप्त की थी। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती निम्न विद्वान कवियों का स्मरण किया है-प्रकलंक, पूज्यपाद (देवनन्दी), नेमिचन्द्र सैद्धातिक, चतुर्मुख स्वयंभू, पुष्पदन्त, यशःकीर्ति, रइधू, गुणभद्रसूरि और सहणपाल । इनमें सहणपाल का कोई ग्रन्थ अवलोकन में नहीं आया। भट्टारक प्रभाचन्द्र यह भ० पद्मनन्दी के प्रपट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले भट्टारक जिनचन्द्र के पट्ट शिष्य थे। जिनका पट्टाभिषेक सम्मद शिखर पर सवर्ण कलशों से सं० १५७१ में फाल्गुन कृष्ण दोइज के दिन हना था। इनक नाम सुहृज्जन था, जो विवेकी और वादि रूपी गजों के लिए सिंह के समान था। यह वैद्यराट् बिंझ के द्वितीय पुत्र थे। इन्होंने राजा के समान विभूति का त्याग कर दीक्षा ग्रहण की थी। भट्टारक होने पर इनका नाम प्रभाचन्द्र रक्खा गया था । वे इस पद पर ६ वर्ष ४ मास और २५ दिन रहे हैं। भट्टारक प्रभाचन्द्र सं० १५७८ में चम्पावती (चाटसू) में थे और वहाँ के श्रावकों में उन्होंने धार्मिक रुचि बढाने का प्रयत्न किया था। कवि ठकुरसी ने सं० १५७८ में मेघमाला कथा में प्रभाचन्द्र का उल्लेख किया है । इन प्रभाचन्द्र की कोई रचना मेरे अवलोकन में नहीं पाई। इनका समय वि० की १६वीं शताब्दी का तृतीय चरण है। भट्टारक शुभचन्द्र मूल संघ कुन्दकुन्दान्वय में प्रसिद्ध नन्दिसंघ और बलात्कारगण के भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य और भ० १. बाबर ने सन् १५२६ मे पानीपत की लड़ाई में दिल्ली के बादशाह इब्राहीम लोदी को पराजित और दिवंगत कर दिल्ली का राज्य शासन प्राप्त किया था। उसके बाद उसने आगरा पर भी अधिकार कर लिया था और सन् १५३० (वि० स० १५८७) में आगरा में ही उसकी मृत्यु हो गई थी। इसने केवल ५ वर्ष ही राज्य किया है। २. विक्रमरायहु ववगय कालहु, रिसिवसु-सर-भुवि-कालइ। कत्तिय-पढम पक्खि पंचमिदिणि, हुउ परिपुण्ण वि उग्गंतइ इणि। शान्तिनाथ चरित प्रशस्ति ३. तत्पट्टोदय भूधरेऽजनि मुनिः श्रीमत्प्रभेन्दुवंशी। हेयायविचारणकचतुरो देवागमालकृतो। भोजदिवाकरादिविविध तक्कै च चंचुश्चरणो। जनन्द्रादिकलक्षणप्रणयने दक्षोऽनुयोगेषु च ॥३२ त्यक्त्वा सासारिकी भूति किपाकफल सन्निभाम् । चिन्तारत्न निभा जैनी दीक्षा सप्राप्य तत्त्ववित् ॥३३ शब्द ब्रह्मसरित्पतिस्मृतिबलादुत्तीर्य यो लीलया। पट् तर्कागमार्क कर्कश गिरा जित्वाऽखिलान् वादिनः । प्राच्या दिग्विजयी भवन्निव विभूजनी प्रतिष्ठाकृते । श्री सम्मेदगिरी सुवर्ण कलशः पट्टाभिषेकः कृतः ॥३४ -बलात्कारगण गूर्वावली ४. द्वितीय पुत्रोऽपि सुहृज्जनाख्यो विवेकवान्वादिगजेन्द्रसिंहः । आसीत्सदा सर्वजनोपकारी खानिः सुखानां जिनधर्मचारी ॥३६॥ भट्टारकः श्री जिनचंन्द्र पट्टे भट्टारकोऽयं समभूद् गुणाढ्यः । प्रभेन्दु संज्ञो हि महा प्रभावः त्यक्त्वा विभूति नुपराज साम्याम् ॥३७ ५. 'तह मज्झिपहाससि वा मुणीसु, सह, संठिउ रणं गोय, मुणीसु ॥ मेघमाला कथा प्र०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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