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________________ ५२४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ विजयकोति जिनका शरीर तप से क्षीण हो गया था, आम्नाय के विद्वान थे। इन्होंने ग्वालियर के तोमर वंशी राजा कीतिसिह के राज्यकाल में सं० १५२५ में भाद्रपद शुक्ला ५वीं गुरुवार के दिन लम्बकंचक वंश के साहु जिनदास के पूत्र हरिपाल के लिए अपभ्रश भाषा में दसलक्षणव्रत की कथा को रचना प्रादिनाथ के चैत्यालय में की है। "जिण पाइणाह - चेइ हरयं, विरहय दहलक्खण कह सुवयं । उवएसय कहियं गणग्गलयं, पंदहसइ बउवीस मलयं॥ भावव सुदि पंचमि प्रहविमलं, गुरुवार विसारयणु खलु प्रमलं ॥" -अग्रवाल मन्दिर उदयपुर, जैन ग्रन्थ सूची भा० ५, पृ० ४४५ इससे प० हरिचन्द का समय वि० की १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। पंडित मेधावी यह मूल संघ के भट्टारक जिनचन्द्र के शिष्य थे। यह भट्टारकीय विद्वान थे। इनका वंश अग्रवाल था। यह साहू लवदेव के प्रपुत्र और उद्धरण साहु के पुत्र थे। इनकी माता का नाम 'भीषुही' था। यह प्राप्त प्रागम के विचारज्ञ और जिनचरण कमलों के भ्रमर थे। इन्होने अपने को पंडित कंजर लिखा है । यह विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के अच्छे विद्वान और कवि थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की पुस्तकदात्री प्रशस्तियाँ भी लिखी हैं जिनमें लिपि कराने वाले दातार के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय कराया गया है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इनसे स्पष्ट है कि विक्रम की १६वीं शताब्दी में श्रावकों द्वारा हस्तलिखित ग्रन्थों को लिखाकर प्रदान करने की परम्परा जैन समाज में प्रचलित थी। शास्त्र दान की यह परम्परा जहाँ श्रुतभक्ति और उसके संरक्षण को बल प्रदान करती है, वहाँ दातार भी अपनी विशुद्ध भावनावश अपूर्व पुण्य का संचय करता है। इससे ग्रन्थों के संकलन और तरक्षा को प्राश्रय मिला है। इन दात प्रशस्तिनों के कारण मेधावी उस समय प्रसिद्ध विद्वान माने जाते थे । मेधावी द्वारा लिखित दातृ प्रशस्तियाँ सं० १५१६, १५१६, १५२१, १५३३ और १५४६ की लिखी ह लाचार, तिलोय पण्णत्ती, तत्त्वार्थभाष्य (सिद्धसेन गणि ) जंबूद्वीप पण्णत्ती, अध्यात्म तरंगिणी और नीतिवाक्यामत की मेरी नोट बुक में दर्ज हैं । सं० १५१४ में ज्येष्ठ सुदी ३ गुरुवार के दिन हिसार में वहलोल लोदी के राज्य में अग्रवालवंशी वंसल गोत्री साह छाज ने हेमचन्द्र के प्राकृत हेम शब्दानुशासन की प्रति लिखाकर प्रदान की थी, जो अजमेर के हर्ष कीर्ति भंडार के बड़े मन्दिर में मौजूद है । मेधावी ने सं०१५४१ में एक श्रावकाचार की रचना की थी, जिसे धर्म संग्रह श्रावकाचार के नाम से उल्लेखित किया जाता है । इनका समय १५०० से १५५० तक का रहा है । यह विक्रम की १६वीं शताब्दी के विद्वान हैं । कवि महिन्दु या महाचन्द्र महाचन्द्र इल्लराज के पुत्र थे । नामोल्लेख के अतिरिक्त कवि ने अपना कोई परिचय नहीं दिया। प्रशस्ति १. जिण आइरणाह चेइ हरयं विरइय दह लक्खरण कह सुवयं । उवएसय कहिय गुरगग्गलयं, पंदहसइ पउवीस मलयं ।। भादव सुदि पंचमी अयविमलं, गुरुवार विसारयण खल अमलं । गोवग्गिरि दुग्गइ दाणइयं तोमरहं वंस कित्तिम समयं ।। वर लंबकंच बंसह तिलकं जिणदास सुधम्महं पुरण णिलयं । भज्जा विमुतीला गुणसहियं णंदण हरिपारु बुद्धिणिहियं । -दशलक्षण कथा प्रशस्ति । २. अग्रोत वंशजः साधुर्लवदेवाभिधानकः । तत्त्वगुद्धरणः संज्ञा तत्पत्नी भीषुहीप्सुभिः ॥१२ तयोः पुत्रोऽस्ति मेधावी नामा पंडितकुंजरः । प्राप्तागम विचारज्ञो जिनपादाब्ज षट्पदः ॥३३, 'तत्त्वार्थभाष्य दात प्रा.
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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