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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ राग रखता था। पुजराज नाम का एक वणिक उसका मन्त्री था। ईश्वर दास नाम के सज्जन उस समय प्रसिद्ध थे। जिनके पास विदेशों से वस्त्राभूषण पाते थे, जयसिंह, संघवी शंकर पौर संघपति नेमिदास उक्त अर्थ के ज्ञायक थे। अन्य साधर्मी भाइयों ने भी इसकी अनुमोदना की थी और हरिवशपुराणादि ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ कराई थी। प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम सं० १५५३ के श्रावण महीने की पंचमी गुरुवार के दिन समाप्त हुमा था। जोगसार प्रस्तुत ग्रन्थ दो संधियों या परिच्छेदों में विभक्त है जिनमें गृहस्थोपयोगी प्राचार सम्बन्धी सैद्धान्तिक बातों पर प्रकाश डाला गया है। साथ में कुछ मुनि चर्या प्रादि के सम्बन्ध में भी लिखा गया है। __ग्रन्थ के अन्तिम भाग में भगवान महावीर के बाद के कुछ प्राचार्यों की गुरु परम्परा के उल्लेख के साथ कुछ ग्रन्थकारों की रचनाओं का भी उल्लेख किया गया है, और उससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि भट्टारक श्रत कीति इतिहास से प्रायः अनभिज्ञ थे और उसे जानने का उन्हें कोई साधन भी उपलब्ध न था, जितना कि आज उपलब्ध है। दिगम्बर श्वेताम्बर संघभेद के साथ प्रापुलीय (यापनीय) संघ मिल्ल और निःपिच्छक संघ का नामोल्लेल किया गया है । और उज्जैनी में भद्रबाहु से सम्राट चन्द्रगुप्त की दीक्षा लेने का भी उल्लेख है। ग्रन्थकार संकीर्ण मनोवृत्ति को लिए था, वह जैनधर्म की उस उदार परिणति से भी अनभिज्ञ था, इसीसे उन्होंने लिखा है कि-'जो प्राचार्य शूद्रपुत्र और नोकर वगैरह को व्रत देता है वह निगोद में जाता है और अनन्त काल तक दुःख भोगता है। प्रस्तुत ग्रन्थ सं० १५५२ में मार्गशिर महीने के शुक्ल पक्ष में रचा गया है । इसकी अन्तिम प्रशस्ति में 'धर्म परीक्षा' ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जिससे वह इससे पूर्व रची गई हैं। कवि की चौथी कृति 'धम्म परिक्खा' धर्मपरीक्षा है। जिसकी एक अपूर्ण प्रति डा. हीरालाल जी एम० ए. डी० लिट्को प्राप्त हुई थी। उसमे १७६ कडवक है, उसे सम्वत् १५५२ मे बना कर समाप्त किया था। जिस का परिचय उन्होंने 'अनेकान्त' वर्ष १२ किरण दो में दिया था। इन चारों ग्रथों के अतिरिक्त कवि की अन्य भी कृतियां होगी, जिनका अन्वेषण करना आवश्यक है। कवि माणिक्यराज यह जैसवाल कुलरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये तरणि (सूर्य) थे । इनके पिता का नाम 'बुधसूरा' था और माता का नाम 'दीवा' था । कवि ने अमरसेन चरित में अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है-क्षेमकीति, हेमकीति, कुमारसेन, हेमचन्द्र और पद्मनन्दी। ये सब भट्टारक मूलसंघ के अनुयायी थे। कवि के गुरु पद्मनन्दी थे, जो बडे तपस्वी शील को खानि निर्ग्रन्थ, दयालू और अमृतवाणी थे। प्रमरसेन चरित की अन्तिम प्रशस्ति में कवि ने पद्मनन्दी के एक शिष्य का और उल्लेख किया है, जिनका नाम देवनन्दी था और जो श्रावक की एकादश प्रतिमानों के सपालक, राग द्वेष के विनाशक, शुभध्यान में अनुरक्त और उपशमभावी था। कवि ने अपने गुरु का अभिनन्दन किया है। कवि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं । कवि ने रोहतासपुर के जिनमंदिर में निवास करते हुए ग्रन्थों की रचना पौर दोनों ग्रन्थ ही अपूर्ण हैं। उनमें प्रथम प्रमरसेन चरित का रचनाकाल वि० सं० १५७३ चंत्रशुक्लपंचमी -योगसार पत्र ६५ १. अह जो सूरि देइ वउगिच्चह, नीच-सूद-सुय दासभिच्चहं। जाय णियोग असुहअणुहुन्जई, अभिय कालतहं घोर दुह भुजह । २. विक्कम रायह ववगह कालई, पण्णंरह सयते बावण अहियई। रयउ गंधु तं जाउ सउण्णउ, पंच"....."दासस जायउ 1. "सिरि जयसवाल-कुल-कमल-तरणि, इक्ष्वाकु वंस महियलि वरिट्ठ,वुहसूरा णंदण सुअ गरिट्ट। उघण्णउ दीवा उररवण्णु, बहुमाणिकुणामें वुहाहि मण्ण।" -जोग-सार प्रशस्ति -नागकुमार चरित प्र.
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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