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________________ ५१२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ चना उपलब्ध हैं। वे सब ग्रन्थ परित पुराण और कथा सम्बन्धी हैं। पूजा सम्बन्धी साहित्य भी प्रापका रचा हना होगा। अंतरीक्ष पार्श्वनाथ पूजा अापकी लिखी हुई पाई जाती है। प्रापका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का ततीय चतुर्थ चरण है। क्योंकि इन्होंने पाराधना कथाकोश सं० १५७५ प्रौर श्रीपाल चरित सं० १५५५ में बनाकर समाप्त किया है। इनका जन्मकाल सं०१५५० या १५५५ के पासपास का जान पड़ता है। रचनाएँ (१) पाराधना कथा कोश (२) रात्रिभोजन त्याग कथा (३) सुदर्शन चरित (५) श्रीपाल चरित (५) धर्मों पदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार (६) नेमिनाथ पुराण (७) प्रीतिकर महामुनि चरित (८) धन्य कुमार चरित (8) नेमिनिर्माण काव्य (ईडर भंडार) (१०) और अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ पूजा। इनके अतिरिक्त हिन्दी भाषा की भी दो रचनाएं उपलब्ध हैं । मालारोहिणी (फुल्ल माल) पौर आदित्य व्रतरास । इन दोनों रचनाओं का परिचय अनेकान्त वर्ष १८ किरण दो प०२पर देखना चाहिए । नेमिदत्त के आराधना कथा कोश के अतिरिक्त अन्य रचनाएँ अभी अप्रकाशित हैं । रचनाएं सामने नहीं है । अतः उनका परिचय देना शक्य नहीं है। नेमिनाथ पुराण का हिन्दी अनुवाद सुरत से प्रकाशित हुआ है । पर मूल रूप छपा हुआ मेरे अवलोकन में नहीं आया। म० अभिनव धर्मभूषण धर्मभूषण नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। प्रस्तुत धर्मभूषण उनसे भिन्न हैं। क्योंकि इन्होने अपने को 'अभिनव' 'यति' और 'प्राचार्य विशेपणों के साथ उल्लेखित किया है । यह मूलसंघ में नन्दिसंधस्थ बलात्कारगण सरस्वति गच्छ के विद्वान भट्टारक वर्द्धमान के शिष्य थे। विजय नगर के द्वितीय शिलालेख में उनकी गुरुपरम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार पाया जाता है-पद्मनन्दी, धर्मभूषण, अमरकीति, धर्मभूषण, वर्द्धमान, और धर्मभूषण' । यह अच्छे विद्वान व्याख्याता और प्रतिभाशाली थे। इनका व्यक्तित्व महान् था। विजयनगर का राजा देवराय प्रथम, जो राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित था, इनके चरण कमलों की पूजा किया करता था। राजाधिराज परमेश्वर देवराय, भूपाल मौलिलसदंघ्रि सरोजयुग्मः । श्रीवर्धमान मुनि वल्लभ मौढ्य मुख्य ; श्रीधर्मभूषण सुखी जयति क्षमाढ्यः । दशभक्त्यादि महाशास्त्र इस राजा देवराय प्रथम को महारानी भीमा देवी जैनधर्म को परम भक्त थो। इसने श्रवण बेलगोल को मंगायी वसदि में शान्तिनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी और दान दिया था। इसका राज्य सन् १४१८ ई. तक विजय नगर के दितीय शिलालेख में जो शक सं०१३०७ (सन १३८५) का उत्कोणं किया हना है। इससे इन धर्मभूषण का समय ईसा की १४वीं शताब्दी का उत्तरार्ध पोर १५वीं शताब्दी का पूर्वार्ध सुनिश्चित है। इसमें मन्देह नहीं कि अभिनव धर्मभूषण प्रपने समय के प्रसिद्ध विद्वान थे। पद्मावती देवो के शासन लेख में इन्हें बड़ा विद्वान और वक्ता प्रकट किया है । यह मुनियों और राजामों से पूजित थे । १. "शिष्यम्तस्य गुरोरासी धर्मभूषण देशकः।" भट्टारक मुनिः श्रीमान् शल्यत्रय विवर्जितः।। विजय नगर द्वि. शिलालेख । "मदगुरो वर्चमानिशो वर्द्धमान दयानिधेः । श्री गद स्नेह सम्बन्धात् सिद्धेयं न्याय दीपिका ।। -न्याय दीपिका प्रशस्ति २. विजय नगर का द्वितीय शिलालेख, जैन सि० भास्कर भा० १ किरण ४१०५६ ३. प्रशस्ति संग्रह, जैनसिद्धान्तभवन मारा पृ० १२५ । ४. मिडियावल जैनिज्म पृ० २६६ ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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