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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ एकीभावस्तोत्र' की टीका जरूर उपलब्ध हुई है, उसकी कापी जयपुर के भंडार की प्रति पर से मैंने सन् ४४ मं की थो जो मेरे पास है । उसकी उत्थानिका में लिखा है भट्टारक ज्ञानभूषण के उपरोध से मैने यह टीका भव्यों के शीघ्र सुख बोध के लिये छायामात्र लिखी है । 'चास्याति गहन गंभीरस्य सुखावबोधार्थं भव्याशुजिप्टक्षापारतंत्रज्ञानभूषण भट्टारकेरुपरुद्धौ नागचन्द्र सूरि यथाशक्ति छायामात्रमिदं निबंधनमभिधत्ते ।' इन टीकों के प्रतिरिक्त नागचन्द्र की अन्य किसी कृति का उल्लेख मेरे देखने में नहीं श्राया । इनका समय १६वीं शताब्दी है । क्योंकि नागचन्द्र ने भ० ज्ञानभूषण का उल्लेख किया है, और ज्ञानभूषण ने सं० १५६० में तत्त्वज्ञानतरंगिणी की टीका समाप्त की है। अतएव नागचन्द्र का समय भी १६वीं शताब्दी सुनिश्चित है । श्रभिनव समन्तभद्र ५०८ अभिनव समन्तभद्र मुनि के उपदेश से योजन श्रेष्ठी के बनवाये हुए नेमीश्वर चैत्यालय के सामने कांसी का एक मानस्तम्भ स्थापित हुआ था। जिसका उल्लेख शिमोगा जिलान्तर्गत नगर ताल्लुके के शिलालेख नं०५५ में मिलता है' । यह शिलालेख तुलु, कोंकण आदि देशों के राजा देवराय के समय का है, और इस कारण मि० डेविस राइस साहब ने इनका समय ई० सन् १५६० के करीब बतलाया है । भट्टारक गुरणभव गुणभद्र नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। परन्तु यह उनसे भिन्न जान पड़ते हैं। यह काष्ठासघ माथु - रान्वय के भट्टारक मलय कीर्ति के शिष्य और भ० यशःकीर्ति के प्रशिष्य थे । और मलयकीर्ति के बाद उनके पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे। यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे, इनके द्वारा अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई है। इन्होंने अपने विहार द्वारा जिनधर्म का उपदेश देकर जनता को धर्म में स्थिर किया है, और उसके प्रचार एवं प्रसार में सहयोग दिया है । इनके उपदेश से अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ की गई हैं। इनकी बनाई हुई निम्न १५ कथाएं उपलब्ध है । १ सवणवारसि कहा २ पक्खवइ कहा ३ प्रायास पंचमी कहा ४ चंदायणवय कहा ५ चंदणछठ्ठी कहा ६ दुग्धारस कहा, ७ णिद्दह सत्तमी कहा ८ मउडसत्तमी कहा ६ पुप्फंजलि कहा १० रयणत्तय कहा १९ दहलक्खणवय कहा १२ अणंतवय कहा १३ लद्धिविहाण कहा १४ सोलह कारण कहा १५ और सुयधदशमी कहा । भ० गुणभद्र संभवतः १५०० में या उसके कुछ वर्ष बाद भ० पट्ट पर प्रतिष्ठित हो गये थे। क्योंकि सं० १५१० में प्रतिलिपि की गई समयसार की प्रशस्ति ग्वालियर के डूंगरसिंह राज्य काल में भ० गुणभद्र की ग्राम्नाय में अग्रवाल वंशी गगं गोत्रीय साहु जिनदास ने लिखवाई थी । इस कवि गुणभद्र का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । गुणभद्र ने उक्त व्रत कथानों में व्रत का स्वरूप, उनके आचरण की विधि और फल का प्रतिपादन करते हुए व्रत की महत्ता पर अच्छा प्रकाश डाला | आत्म-शोधन के लिए व्रतों की नितान्त आवश्यकता है; क्योंकि प्रात्म शुद्धि के बिना हित साधन सम्भव नहीं है । इन कथाओंों में से श्रावण द्वादशी कथा और लब्धि विधान कथा ये दो कथाएं ग्वालियर निवासी संघपति साहू उद्धरण के जिनमन्दिर में निवास करते हुए साहु सारंगदेव के पुत्र देवदास की प्रेरणा से रची गई है। और दशलक्षण व्रतकथा, अनन्त व्रत कथा और पुष्पांजलि व्रतकथा ये तीनों कथाएं जैसवालवंशी चौधरी लक्ष्मणसिंह के पुत्र पण्डित भीमसेन के अनुरोध से बनाई हैं। और नरक उतारी दुद्धारस कथा बीधू के पुत्र सहणपाल के लिए बनाई गई । शेष 8 कथाएं कवि ने किसकी प्र ेरणा से बनाई, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । वे धार्मिक भावना से प्रेरित हो रची गई जान पड़ती हैं । कवि की अन्य क्या रचनाएँ है यह अन्वेषणीय है । ब्रह्म श्र ुतसागर मृलसंघ सरस्वती गच्छ और बलात्कारगण के विद्वान थे। इनके गुरु का नाम विद्यानन्दि था जो भट्टारक १. देखो, दानवीर मणिकचन्द्र पृ० ३०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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