SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 522
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ और कौशीरा । ये तीनों ही पत्नियाँ सती, साध्वी तथा गणवती थीं और नित्य जिन पूजन किया करती थीं । ल्हो से कल्याणमिह नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो बड़ा ही रूपवान दानी और जिन गुरु के चरणाराधन मे तत्पर था । मं० १४७५ आषाढ़ सुदि ५ को वीरमदेव के राज्य में कुशराज उसके परिवार द्वारा प्रतिष्ठित किया हुआ यंत्र नरवर के मन्दिर में मौजूद है। कुशराज ने श्रुतभक्ति वश यशोधर चरित्र की रचना कवि पद्मनाभ से कराई थी । यह पौराणिक चरित्र बड़ा ही रुचिकर प्रिय और दयारूपी अमृत का श्रोत बहाने वाला है । इस पर अनेक विद्वानों द्वारा प्राकृत, संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दी गुजराती भाषा में ग्रन्थ रचे गए है । कवि ने ग्रन्थ में रचनाकाल नही दिया । किन्तु यह रचना स० १४७५ के आस-पास की है। क्योंकि वीरमदेव का राज्य मं० १४७६ के कुछ महीने तक रहा है। उक्त स० १४७६ के वैशाख में महीने उनके पुत्र गणपतिसिंह का राज्य हो गया था। उसी के राज्यकाल में धातु वी चोवीसी मूर्ति की प्रतिष्ठा को गई थी । अतः पद्मनाभ कायस्थ का समय विक्रम की १५ वी शताब्दी का तनं य चरण है । कवि धनपाल कवि धनपाल गुजरात देश के पल्हूणपुर या पालनपुर के निवासी थे । वहाँ राजा वीसल देव का राज्य था। उसी नगर के पुरवाड़ वश जिसने प्रगणित पूर्व पुरुष हो चुके है 'भांवइ' नाम के राज श्रेष्ठी थ । जो जिनभक्त और दयागुण से युक्त थे। यह कवि धनपाल के पितामह थे । इनके पुत्र का नाम 'सुहड प्रभ' श्रेष्ठी था, जो धनपाल के पिता थे । कवि की माता का नाम सुहडादेवी' था इनके दो भाई चार भी थे, जिनका नाम सन्तोष और हरिराज था । इनके गुरु प्रभाचन्द्र थे, जो अपने बहुत से शिष्यो के साथ देशाटन करते हुए उसी पल्हणपुर में आये थे । धनपाल ने उन्हें प्रणाम किया और मुनि ने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रमाद से विचक्षण हो जाओगे और मस्तक पर हाथ रखकर बोले कि मैं तुम्हे पत्र देता है ! तुम मेरे मुख से निकले हुए ग्रक्षरों को याद करो । प्राचार्य प्रभाचन्द्र के वचन सुनकर धनपाल का मन ग्रानन्दित हुआ, और उसने विनय में उनके चरणो की वन्दना की, और आलस्य रहित होकर गुरु के ग्रागे शास्त्राभ्यास किया, और सुकवित्व भी पा लिया । पश्चात् प्रभाचन्द्र गणी खंभात धारनगर और देवगिरि (दौलताबाद) होते हुए योगिनी पुर (दिल्ली) आये । देहली निवामियों ने उस समय एक महोत्सव ६. सत्रत् १४७६ वर्ष वंशाग्य सुदि ३ शुक्रवासरे गणपति देव राज्य वर्तमाने श्री मूलम | नयापाये स्ट्टारक शुभचन्द्रदेव मलाचार्य पं० भगवन तत्पुत्र मघवी खेमा भार्या खेभादे जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कारावितम् । मूर्ति लेख नया मन्दिर लश्कर १. पालनपुर (पल्हणपुर) Palanpur श्राबू राज्य के परमारवंशी धारा वर्षं म० १२२० (सन् १९६३ ई० ) से १२७६ ई० सन् १२१६) तक आबू का राजा धारावर्ष था, जिसके कई लेख मिल चुके है उसके कनिष्ठ भ्राता यशोधवल के पुत्र प्रह्लादन] देव (पालनमी) ने अपने नाम पर बसाया था। यह बड़ा वीर योद्धा था, साथ में विद्वान भी था। इसी से इमे कवियों ने पालनपुर या पल्हापुर लिखा है । यह गुजरात देश की राजधानी थी। यहा अनेक राजाओं ने शासन किया है। आबू के शिला लेखो में परमावश की उत्पत्ति और माहात्म्य का वर्णन है और प्रह्लादन देव की प्रशंसा का भी उल्लेख है ! जिस समय कुमारपाल शत्रुंजयादि तीर्थो की यात्रा को गया, तब प्रह्लादन देव भी साथ था । प्रह्लादन देव की प्रशंसा प्रसिद्ध कवि सोमेश्वर ने कीर्ति कौमुदी मे लूणवसही की प्रशस्ति में की है। यह प्रशस्ति वि० सं० १२८७ में आबू पर लगाई थी। मेवाड़ के गुहिल वंशी राजा सामन्तसिंह और गुजरात के सोलं की राजा अजयपाल की लड़ाई में, जिसमें - ( पुरातन प्रबंध सं० पृ० ४३ ) और तेजपाल मंत्री द्वारा बनवाए हुए देलवाड़ा गांव के नेमिनाथ मन्दिर में वह घायल हो गया था प्रह्लादन ने बड़ी वीरता से लड़ कर गुजरात की रक्षा की थी। प्रस्तुत पालनपुर में दिगम्बर श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदाय के लोग रहते थे । धनपाल के पितामह तो वहां के राज्य श्रेष्ठी थे । इताम्बर समाज का तो वह मुख्य केन्द्र ही था ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy