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________________ ४७० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ विन्तु राजा को उसका पता चल गया और राजा ने तत्काल ही राज्य का भार पुत्र को सोंप कर जिन दीक्षा ले ली। राजा ने पुत्र के शुभ लक्षणो को देखकर उसका नाम सुकौशल रक्खा। रानी को पति-वियोग का दुःख असह्य था। साथ ही पुत्र के भी साधु हो जाने का भय उसे प्रातकित किये हुए था । युवावस्था में उसका विवाह ३२ राज कन्याओं से करदिया गया और भोग विलासमय जीवन विताने लगा। उसे महल से बाहर जाने का कोई अधिकार न था। माता सद। इस बात का ध्यान रखती थी कि पुत्र कही किसी मुनि को न देख ले। अतएव उसने नगर में मुनियों का पाना निपिद्ध कर दिया था। एक दिन कुमार के मामा मुनि कीतिधवल नगर में आये, किन्तु उनके साथ अच्छा व्यवहार न किया गया। जब राजकुमार को यह ज्ञात हा, तो उसने राज्य का परित्याग कर उनके समीप ही साधु दीक्षा लेकर तप का अनप्ठान करने लगा। माता सहदेवी पुत्र वियोग से अत्यन्त दुखी हई ओर पार्त परिणामो से मर कर व्याघ्री हई। एक दिन उसने अत्यत भूखी होने के कारण पर्वतपर ध्यानस्थ मुनि सुकौशल को ही खा लिया। सुकौशल ने समताभाव से कर्म कालिमा नष्ट कर स्वात्मलाभ किया। इधर मुनि कातिधवल ने उस व्याघ्री को उपदेश दिया, जिसे सुनकर उसे जाति स्मरण हो गया, और अन्त मे उसने सन्यास पूर्वक शरीर छोड़ा और स्वर्ग प्राप्त किया, कीर्तिधवल भी प्रक्षय पद को प्राप्त हुए । कविने यह ग्रथ अग्रवाल वशी साहू पाना के पुत्र रणमल के अनुरोध से बनाया था। कवि ने इस ग्रन्थ को वि० स० १४६६ मे माघ कृष्ण दशमी के दिन ग्वालियर में राजा डुगरमिह के राज्य में समाप्त किया। सावय चरिउ (सम्मत्तकउम इ) इस ग्रन्थ में छह सधिया है, जिनमे थावकाचारका कथन करते हए सम्यवतोत्पादक सुन्दर कथानो का सयोजन किया है । ग्रथ की अन्तिम पुग्पिका में 'सम्मत्त क उम्र का नाम ग्रन्थ कार ने स्वय दिया है : इस सिरि सावयरिए मदसण पमूह मुद्ध गुण भरिए मिरि पंदित र इधु वण्णिए सिरि महाभव्य सेउ साह सुय साहू संधाहिव कुसराज अणुमण्णिए सम्मत्त उमुट नाम छट्टो सधि परिच्छेग्रो ममनो।" ग्रन्थ के आदि में कवि ने-'तह सावय चरिउ भणहुमत्थ' वाक्य द्वारा थावकाचार कहने का उल्लेख किया है। इससे स्पप्ट है कि कर्ता ने ग्रन्थ के दोनो नाम दिये है। यद्यपि ग्रन्थ में थावकाचार का कोई खास कथन नही किया, किन्तु सम्यक्त्वोत्पादन सुन्दर आठ स्थाए अक्ति की है। ये कथाएं मस्कृत की सम्यक्खकौमुदी मे भी ज्यों की त्यो पाई जाती है। उन में भाषा-भेद अवश्य विद्यमान है। साह टेक्कणि ने इसके बनाने की कवि से प्रेरणा की थी। और वही ग्वालियर के गोलाराडान्वधी सेउ साह के पत्र वशराज को कवि के समीप ले गया और उनका कवि से परिचय कराया। अतएव वह ग्रन्थ रचना में प्ररक है। पौर काव रइध ने कशराज की अनुमति से ग्रन्थ की रचना की है। कुशराज मूलमघ के अनुयायी थे। इसलिये कवि ने मूलसघ के भट्टारक पद्मनन्दी शुभचन्द्र और जिनचन्द्र का उल्लेख किया है। -जैन ग्रन्थ प्रशरित० भा० २, पृ० ७२ १. सिरिविकाम समयतगलि बट्टनर दुम्ममविसमकालि । चउदह सय मवक्छरद अण्ण, छण्णव अहिय पुण जाय पुण्ण । माह दुजि किण्ह दहमी दिणम्मि, अगगहु रिक्वि पटिय स कम्मि। २. मूलमघ उज्जोयण दिणयरु, पामगदि मिरि बुहयण मुरतर । तामु पट्टिग्यगत्तयधारउ सजायउ, मुहचदु भटारउ । पुग्ण उवण्णु सिंहामण मडणु, मिच्छावाइ वर-मड-खडण । जिग मामगा कारणरण पचाणगग गादिसघ पदिय तव मागगग । सद्द बभरयगोह पयोगि हि, दिव्यवारिण उप्पाइय जगदिहि । सरसइ गच्छे गच्छ सत्याहि उ, बाल बंभयागे सज साहिउ । सिरि जिणच भडारउ मुगवइ, तहु पय-पयरुह वदिवि कइवइ। -सावयचरिउ प्रशस्ति।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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