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________________ जैन धर्म का प्राचीन हतिहास-भाग २ को अत्यन्त सुरुचिकर और सरस मालूम होती हैं प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि क्षेमसिंह का कूल अग्रवाल और गोत्र गोयल था उनकी पत्नी निउरादे से दो पुत्र हुए। कमलसिंह और भोजराज, कमल सिंह विज्ञान कला कुशल और बुद्धिमान, देव शास्त्र और गुरु का भक्त थ। इसकी भार्या का नाम 'सरासइ' था, उससे मल्लिदास नाम का पुत्र हा था। और इनके लघु भ्राता भोजराज की पत्नी देवइ से दो पुत्र चन्द्रसेन और देवपाल नाम के हुए थे । ग्रन्थ को प्रथम संधि में १७वें कडवक से स्पष्ट है कि कमलसिह ने भगवान आदिनाथ की ग्यारह हाथ की ऊँची एक विशाल मूर्ति का निर्माण राजा इंगरसिंह के राज्यकाल में कराया था, जो दुर्गति के दुःखों की विनाशक, मिथ्यात्व रूपी गिरीन्द्र के लिये वज्र समान, भव्यों के लिये शुभगति प्रदान करने वालो, दु:ख, रोग, शोक की नाशिका थी-जिसके दर्शन चिन्तन से भव्यों की भव बाधा सहज ही दूर हो जाती थी। इस महत्वपूर्ण मूर्ति को प्रतिष्ठा कर कमलसिंह ने महान पुण्य का संचय किया था। "जो देवहिदेव तित्थंकरु, प्राइणाहु तित्थोयसुहंकरु । तह पडिमा दुग्गइणिण्णासणि, जा मिच्छत्त-गिरिदं-सरासणि। जापुणु भन्वहसुहगइ-सासणि, जामहिरोय-सोय-दुहु-णासणि । सा एयारहकर-प्रविहंगी, काशवियणिरूवमप्रइतुगी। प्रगरिणयप्रणपडिमकोलक्खइं, सरगरुताह गणणजइअक्खइ। करि वि पयि? तिलउ पुणु दिण्णउ, चिरुभवि पविहिउ कलिमलु-छिण्णउ ॥" तव कमलसिंह ने चतुर्विधि सघ की विनय की थी। सम्यक्त्व के अंगों में प्रसिद्ध होने वाले पुरुषों की कथाओं का प्राधार आचार्य सोमदेव का यशस्तिलक चम्पू का उपासकाध्ययन रहा प्रतीत होता है । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना सं० १४६२ में की थी। "चउदह सय बाणउ उत्तरालि, वरिसह गय विक्कमराय कालि। वक्खयत्तु जि जणवय समक्खि, भद्दव मासम्मि स-सेयपक्यि । पुण्णमिदिणिकुजवारे समोइ, सुहयारे सुहणामें जणोइ ।" सम्मइजिणचरिउ-इसमें १० सर्ग और २४६ कडवक हैं, जिसमें जैनियों के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का जीवन-परिचय अंकित किया गया है । कवि ने इस ग्रन्थ के निर्माण करने को कथा बड़ी रोचक दी है। ब्रह्म खेल्हाने कवि से ग्रन्थ बनाने की स्वयं प्रेरणा नहीं की, क्योंकि उन्हें सन्देह था कि शायद कवि उनकी अभ्यर्थना को स्वीकार न करे । इसी से उन्होंने भट्टारक यश:कीति द्वारा कवि को ग्रन्थ बनाने की याद दिलाने का प्रयत्न किया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि कवि भट्रारक यशःकीति की बात को टाल नहीं सकते । भ० यशःकीति ने हिसार निवासी साहू तोसउ की दानवीरता, साहित्य रसिकता, और धर्म निष्ठता का परिचय कराते हुए उनके लिये 'सम्मइ जिनचचरिउ' के निर्माण करने का निर्देश किया। कवि ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उसे स्वीकृति किया। इससे ब्रह्मचारी खेल्हा को हर्प होना स्वाभाविक है । प्रस्तुत ब्रह्म खेल्हा हिसार निवासी अग्रवाल वंशी गोयल गोत्रीय साहूतोसउ का ज्येष्ठ पुत्र था। उसका विवाह कुरुक्षेत्र के तेजा साहू की जालपा पत्नी से उत्पन्न खीमी नाम की पुत्री से हुआ था। उनके कोई सन्ता, न थी। अतः उन्होंने अपने भाई के पुत्र हेमा को गोद ले लिया, और गृहस्थी का सब भार उसे सौंपकर मुनि यश:कीति से अणुव्रत ले लिये। उसी समय से वे ब्रह्म खेल्हा के नाम से पुकारे जाने लगे। वह उदार, धर्मात्मा और गुणज्ञ थे और संसार देह-भोगों से उदासीन थे। ___ उन्होंने ग्वालियर के किले में चन्द्रप्रभ भगवान की एक ग्यारह हाथ उन्नत विशाल मूर्ति का निर्माण कराया। ता तम्मि खणि बंभवय-भार भारेण सिरि अयरवालंकवंसम्मि सारेण । संसार-तण-भोय-णिविष्णचित्तण, वरधम्म भाणामएणव तित्तण। खेल्हाहिहाणेण गमिऊण गुरुतेण जसकित्ति विण्णत्त मंडिय गुणेहेण । भो मयणदावग्गिउल्हवरणवणदाण, संसार-जलरासि-उत्तार-वर जाण ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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