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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रूप से उसके गुणों की प्रशंसा करते हए उसकी मंगल का कामना की है। समय-गुणभूषण ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, अतः अन्य साधनों से उस पर विचार किया जाता है। विनयचन्द्र पं० पाशाधर के शिष्य थे, पाशाधर ने उन्हें धर्मशास्त्र पढ़ाया था। सागरचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्र के लिए इप्टोपदेश प्रादि ग्रन्थों की टीका की थी। इन्हीं विनयचन्द्र के शिष्य त्रैलोक्य कीर्ति के शिष्य गुणभूषण थे। अतः गणभषण का समय विक्रम की १४वीं शताब्दी का पूर्वार्ध जान पड़ता है। अय्यपार्य यह मूल संधान्वयी पुष्प मनि के शिष्य थे। अय्यणर्य ने अपने गुरु पूप्पसेन की बड़ी प्रशंसा की है, उन्हें 'अन्य मतांधकारमथनः' और 'स्याद्वाद तेजोनिधिः' जैसे विशेपणों से युक्त प्रकट किया है। इससे वे बड़े भारी विद्वान और तपस्वी जान पड़ते हैं। कवि के पिता का नाम करुणाकर था, जो श्रावक धर्म के पालक थे। और माता का नाम 'अम्बिा ' था जो पतिव्रता, पुण्यलक्ष्मी और चारित्रमूर्ति थी। इनका गोत्र काश्यप था । और इन दोनों का पत्र था अय्यपार्य, जो जिन चरण युगल के पाराधन में तत्पर था। जिसने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया था। और मंत्र तथा औषधियों का भी ज्ञाता था, नय-विनयवान था, उसने पद्मावती देवी द्वारा वर के प्रसाद से जिनेन्द्र कल्याणाभ्यूदय' नामक ग्रन्थ की रचना की थी । इस ग्रन्थ में जिनेन्द्र की प्रतिष्ठा विधि का वर्णन किया है। प्रशस्ति में कवि ने चविशतितीर्थकरों को स्तुति के बाद भगवान महावीर की सघ परम्परा के श्रतधर प्राचार्यों का उल्लेख करते हए कुन्दकुन्द, वाचक उमास्वाति (गद्धपिच्छाचार्य) समन्तभद्र, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद वीरसेन जिनसेन, गुणभद्र नेमिचन्द्र, रामसेन, प्रकलक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, रामचन्द्र, वासवचन्द्र, प्रादि का उल्लेख किया है। १. श्रीमद वीरजिनेश पादकमले चेत. पडघ्रि सदा । हेयादेय विचारबोधनिपुणा बुद्धिश्च यस्यात्मनि ॥२६८ दानं श्रीकर कुडमले गुणनिर्देहे शिरग्युन्नतिः । रत्नाना विनयं हृदि स्थितममी ने मिश्चर नंदतु ॥२६६ २. तच्छिष्योन्य मतान्धकारमथनः म्याद्वादतेजोनिविः।' -जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय प्र० ३. त पुष्पमेन देवं कलिगरणेश्वरं सदावंदे । यम्यपद्मसेना बिबुघानां भवति काम दुहाः ।५१ तदीयशिप्योजनि दाक्षिणात्यः श्रीमान्द्विजन्माभिपजां वरिष्टः । जिनेन्द्र पादाभ्बुरुहेक भक्त: मागारधर्मः करुणाकराग्यः ।।५२ तम्यं व पत्नी कुलदेवते व पतिव्रतालकृत पुण्यलक्ष्मीः, यदक्रमाम्बा जगति प्रतीतः चारित्रमूर्तिः जिनगासनोक्ता ॥५३ तयोरासीत्सूनुम्सदमलगुणाढ्यो स विनयो, जिनेन्द्रः श्री पादान्चुरुह युगलाराधन परः। अधीतः शास्त्राणामरिवलमणि मत्रीपधिवता, विपश्चि निर्णतः नय-विनयवानायं इतिपः ॥५४ श्रीमूलमंधकविता विल सन्मुनीना, श्रीपादपद्मसरसीरुह राजहसः । स्यादर्यपार्य इति काश्यप गोत्रवयों जैनालपाक वरवंशममुद्रचन्द्रः ।। ५५ -जिक कल्या०प्र० ४. पद्मावती दत्तवरप्रसादात्सा म्वतं प्राप्य बुधाय्यं येन । जिनेन्द्र कन्याण समा यो यं ग्रन्थोभ्युधाय्यभ्युदयाः प्रबधः ॥५६ -जि० कल्याण प्र०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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