SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 456
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ नलोटकपूर में पहले राहड ने अपनी रुचि के अनुसार ऋषभदेव का विशाल मन्दिर बनवाया था। बाद में नेमिकुमार ने उसी जिनालय के प्रागे दक्षिण भाग मे २२ वेदियां बनवाई थी।' उससे राहड की प्रसिद्धि अधिक हो गई थी। मेवाड़ की जनता नेमिकुमार से बहुत प्रभावित थी। इस जिनालय में रात्रि के समय स्त्री पुरुष इकट्ठे होकर स्तुतिया पढ़ते थे, और नारिया मिलकर सुन्दर गीत गाती थी। नगर बाग-बगीचों और तालाबों से शोभायमान था। नेमिकुमार की कीर्ति भी कम नही थी। रचनाएं . महाकवि वाग्भट्ट की इस ममय दो कृतियाँ उपलब्ध हैं छन्दोऽनुशासन और काव्यानुशासन । इनमें छन्दोग्नुशासन काव्यनुशासन से पूर्व रचा गया है, क्योकि काव्यानुशासन की स्वोपज्ञवृत्ति में स्वोपज्ञ छन्दोऽनुशासन का उल्लेख करते हए लिखा है कि उसमे छन्दो का कथन विस्तार से किया गया है। अतएव यहा पर नही कहा जाता। जैन साहित्य में छन्दशास्त्र पर 'छन्दोऽनुशासन' स्वम्भछन्द छन्दकोश' ओर प्राकृत पिगल आदि अनेक छन्दग्रन्थ लिखे गये है। उसमें प्रस्तुत छन्दोऽनुशासन सबसे भिन्न है यह सस्कृत भापा का छन्दग्रन्थ है और पाटन के श्वेताम्बरीयज्ञान भडार में ताड़पत्र पर लिखा हा विद्यमान है' । उसकी पत्रमख्या ४२ और श्लोक संख्या ५४० के करीब है और स्वोपज्ञवृत्ति से अलकृत है। इस ग्रन्थ का आदि मगलपद निम्न प्रकार है: विभं नाभेयमानम्र, छन्दसामनुशासन । श्रीमन्ने मिकमारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः।। यही मगल पद्य काव्यानुशासन को स्वोपज्ञवृत्ति म' छन्दसामनुशासन, के स्थान पर 'काव्यानुशासनम्' दिया हुआ है। यह छन्दग्रन्थ पाँच अध्याया में विभक्त है, सज्ञाध्याय १ समवृत्ताख्य २ अर्धसमवृत्ताख्य ३ मात्रासमक ४ और मात्रा छन्दक ५। ग्रन्थ सामने नहाने से इन छन्दो के लक्षणादि का कोई परिचय नहीं दिया जा सकता और न यही बताया जा सकता है कि ग्रन्थकार न अपनी दूसरी किन-किन रचनानी का उल्लेख किया है । इस ग्रन्थ मे राहड और नेमिकुमार की कीति का खुलागान किया गया है प्रार राहइ को पुम्पोत्तम तथा १. निजभुजयुगलोराजित वित्तजात जनित नलोटकपुर प्रतिष्ठित त्रिभुवनाद् भुत श्री नाभिसम्भाजन सदन प्राग्भाग निर्मा पित द्वाविंशति देवगृहिका मण्डलम्य । (काव्यानु० पृ० १) २. अयं च सर्व प्रपंचः श्रीवाग्भट्टाभिध म्वोपज्ञछन्दोऽनुगासने प्रपंचित टति नात्रोच्यते' । ३. यह छन्दोऽनुशासन जपकीति के द्वारा रचा गया है । इमे उन्होने मादव, गिल जनाव' गेतव, पूज्यपाद (देवनन्दी) और जयदेव आदि विद्वानों के छन्द ग्रन्थो को देखकर बनाया गया है। यह जयकीति अमलकीति के शिष्य थे। संवत् ११६२ मे योगसार की एक प्रति अमलकीनि ने लिखवाई थी, उममे जयकीति १२ वी शताब्दी के उत्तगर्घ और १३वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते है। यह ग्रन्थ जैमलमेर के श्वेताम्बगेय ज्ञानभण्डार में सुरक्षित है। (देखो गायकवाड सस्कृत सीरीज में प्रकाशित जैसलमेर भाण्डागारीय ग्रन्थाना सूची।) ४ यह अपभ्रश और प्राकृत भाषा का महत्वपूर्ण मौलिक छन्द ग्रथ है। इसका सम्पादन एच० डी० वेलंकर ने किया है। (देवो,बम्बई यूनिवर्सिटी जनरल सन् १९३३ नथा रायलएमियाटिक सोमाइटी जनरल सन्० ६३५), ५. रत्न शेखर सूरि द्वाग रचित प्राकृत भापा का छन्दकोश है। ६. पिगला ऽचार्य के प्राकृत पिगल को छोड़कर, प्रस्तुत पिगल ग्रन्थ अथवा छन्दोविद्या कविराजमल की कृति है। जिसे उन्होन श्रीमालकुलोत्पन्न वणिक पति राजाभारमल्ल के लिये रचा था। इस ग्रन्थ में छन्दों का निर्देश करते हुए राजा भारमल्ल के प्रताप यश और वंभव आदि का अच्छा परिचय दिया गया है। इन छन्द ग्रन्थो के अतिरिक्त छन्दशास्त्र, वृत्तरलाकर और श्रुतबोध नाम के छन्द ग्रन्य और है जो प्रकाशित हो चुके है। 9. See Patan catalage of Manucripts P. 117.
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy