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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ विक्रम वर्ष सपंचाशीति द्वादशशतेष्वतीतेषु । आश्विनसितान्त्यदिवसे साहसमल्ला पराख्यस्य । श्रीदेवपाल नृपतेः प्रमारकुलशेखरस्य सौराज्ये, नल कच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थोयं नेमिनाथचैत्यगृहे ॥२०॥ १५ त्रिषष्टि स्मृतिशास्त्र सटीक-इसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों का चरित जिनसेनाचार्य के महापुराण के आधार से अत्यन्त संक्षेप में लिखा गया है । इसे पंडित जी ने नित्य स्वाध्याय के लिये, जाजाक पण्डित की प्रेरणा से रचा था । इसकी आद्यप्रति खण्डेलवाल कुलोत्पन्न धीनाक नामक थावक ने लिखी थी। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १२९२ में समाप्त की है, जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्ति के निम्न पद्यों में प्रकट है : प्रमारवंशवा?न्दुदेवपालनृपात्मजे । श्रीमज्जैतुगिदेवेऽसि स्थाम्नावन्तीमवत्यलम् ॥१२ नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् । ग्रन्थोऽयं द्विनवद्वयेकविक्रमार्कसमाप्तये ॥१३ नित्यमहोद्योत--यह जिनाभिषेक (स्नान शास्त्र) श्रुतसागर सूरिका टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है। १६ रत्नत्रय विधान-यह ग्रन्थ बहुत छोटा-सा है और गद्य में लिखा गया है, कुछ पद्य भी दिये हैं। इसे कवि ने सलखण पुर के निवासी नागदेव की प्रेरणा स, जा परमारवशी राजा देव पाल (साहसमल्ल) के राज्य में शाल्क विभाग में (चुगी आदि टंक्स के कार्य में) नियुक्त था, उसकी पत्नी के लिये स० १२८२ में बनाया था। जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यसे प्रकट है :... विक्रमाकं व्यशीत्यग्रद्वादशाब्दशतात्यये। दशम्यां पश्चिमे (भागे) कृष्ण प्रथतां कथा। पत्नी श्रीनागदेवस्य नंद्याद्धर्मेण यायिका। तासीद्रत्नत्रर्यावधिचरतीनां पुरस्मरी ॥ १७-१८ सागरधर्मामृत की भव्यकुमक्चन्द्रिका टीका-- सागारधर्म का वर्णन करने वाला प्रस्तुत ग्रन्थ पंडित जी ने पौरपाटान्वयी महीचन्द साधु की प्रेरणा से रचा था और उसीने इसकी प्रथम पुस्तक लिखकर तैयार की। इसकी टीका की रचना वि० स० १२६६ में पोषवदी ७ शुक्रवार को हुई है' । इसका परिमाण ४५०० श्लोक प्रमाण है। १९-२० अनगार धर्मामृत को भव्य कुमुद न्द्रिका टीका कवि ने इस ग्रन्थ की रचना ६५४ श्लोकों में की है। धणचन्द्र ओर हरिदेव की प्रेरणा से इसकी टीका की रचना बारह हजार दो सो इलाकों में पूर्ण की है, और उसे वि० सं० १३०० में कार्तिक सुदो ५ सोमवार के दिन समाप्त की थी। टीका पडित जी के विशाल पाडित्य की द्योतक है । इसके अध्ययन से उनके विशाल अध्ययन का पता चलता है । माणिकचन्द ग्रन्थमाला से इसका प्रकाशन सन् १९१६ में हुआ था। मूलग्रन्थ ओर सस्कृत टीका दोनों ही अप्राप्य हैं। भारतीय ज्ञानपीठ को इस ग्रन्थको सस्कृत हिन्दी टीका के साथ प्रकाशित करना चाहिये । ग्रन्थ प्रमेय बहुल है। नरेन्द्रकोति विद्य मुलसंघ कोण्डकून्दान्वय देशीयगण पुस्तक गच्छ के प्राचार्य सागर नन्दि सिद्धान्त देव के प्रशिष्य और मनि पुङ्गव अर्हनन्दि के शिष्य थे। जो तर्क, व्याकरण और सिद्धान्त शास्त्र में निपुण होने के कारण विद्य कहलाते थे। इनके सधर्मा ३६ गुणमण्डित और पंचाचार निरत मूनिचन्द्र भट्टारक थे। इनका शिष्य देव या देवराज था। यह देवराज कौशिक मुनि की परम्परा में हुमा है। कडुचरिते के देवराज ने सूरनहल्लि में एक जिन मन्दिर बनवाया था। उसको होयसल देवराजने सूरनहल्लि' ग्रामदान में दिया था। अत: उसने सूरनहल्लि ४० होन में से १० होन इसके लिये निकाल दिये, और उसका नाम 'पार्श्वपुर' रख दिया। देवराज ने मुनिचन्द्र के पाद प्रक्षालन दान दिया। २. संक्षिप्यतां पुराणानि नित्य स्वाध्याय सिद्धये । इति पंडित जाजाकाद्विज्ञप्तिा प्रेरिकात्र में ॥-त्रिषष्ठि स्मृतिशास्त्र
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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