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________________ ३६६ वि० सं० १२८६ और दूसरा वि० सं० १२८६ का है। मांधाता से वि० स० १२३५,२६ अगस्त) का दान पत्र भी मिला है । दिल्ली के सुलतान शमसुद्दीन अल्लमश ने मालवा पर सन् १२३१-३२ में चढाई की थी। और एक वर्ष की लड़ाई के बाद ग्वालियर को विजित किया था, और बाद में भेलसा और उज्जैन को जीता था, तथा वहां के महाकाल मंदिर को तोड़ा था, इतना होने पर भी वहां सुलतान का कब्जा न हो सका। सुलतान जब लूट-पाट कर चला गया। तब वहां का राजा देवपाल ही रहा। इसी के राज्य काल में पं० आशाधर ने वि० सं० १२८५ में नलकच्छपुर' में 'जिनयज्ञ कल्प' नामक ग्रन्थ की रचना की थी, उस समय देवपाल मौजूद थे। इतना ही नही किन्तु जब दामोदर कवि ने सवत् १२८७ में 'मिणाह चरिउ' रचा उस समय भी देवपाल जीवित था। किंतु जब सवत् १२९२ (सन् १२३५) मे ‘त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र आशाधर ने बनाया। उस समय उनके पुत्र 'जैतुगिदेव' का राज्य था । इससे स्पष्ट है कि देवपाल की मृत्यु स० १२९२ से पूर्व हो चुकी थी । वि० स० १३०० मे जब अनगार धर्मामृत की टीका बनी उस समय जैतुगिदेव का राज्य था । यह अपने पिता के समान ही योग्य शासक था । जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ १२६२ भादों सुदी १५, (सन कवि श्रीधर कवि श्रीधर ने अपना कोई परिचय नही दिया, और गुरु परम्परा का भी उल्लेख नही किया । अन्यत्र से भी इसका कोई समधान नही मिलता । कवि विक्रम की १३वी शताब्दी का विद्वान है । इसकी एक मात्र कृति 'भविसयत्त कहा है । ग्रन्थ में छह सधियों और १४३ कडवक दिये हुए है, जिनकी श्लोक संख्या १५३० के लगभग है | ग्रन्थ में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी ( श्रुत पंचमी) व्रतका फल और माहात्म्य वर्णन करते हुए व्रत संपालक भविष्य दत्तके जीवन परिचय को अंकित किया है । कथन पूर्व परम्परा के अनुसार ही किया गया है । श्रीधर ने भविसयत्त चरित की रचना चन्द्रवाड़ नगर में स्थित माथुरवशीय नारायण के पुत्र सुपट्ट साहुकी प्र ेरणा से की थी । समूचा काव्य नारायण साहुकी भार्या रूपिणी के निमित्त लिखा गया है सुपट्ट साहु नारायण के लघुपुत्र थे । उनके ज्येष्ठ भ्राता का नाम वासुदेव था । कविने प्रत्येक सधि के प्रारम्भ में संस्कृत पद्यों में रूपिणी की मंगलकामना की है, जो । १. इन्डियन एण्टी क्वेरी जि० २० पृ० ८३ २. एपि ग्राफिया इन्डिका जि० ६ पू० १०८ १३ । ३. ब्रिग, फिरिश्ता जि० १५० २१०-११ ४. नलकच्छपुर ही नालछा है, यह धारा से २० मील दूर है, यह स्थान उस समय जैन संस्कृति के लिए प्रसिद्ध था । विक्रम वर्ष सपंचाशीति द्वादशशतेप्यतीतेषु । आश्विनसितान्यदिवसे साहसमल्लापराख्यस्य ।। श्रीदेवपालनृपतेः प्रमारकुल शेखरस्य सोराज्ये । नलकच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थोयं नेमिनाथ चैत्यगृहे ।। ५. प्रमारवश वार्षीन्दु देवपालनृपात्मजे । - जिनयज्ञ कल्प प्रशस्ति श्रीमज्जगदेवे सिस्थाम्ना वन्तीमवन्यलम ॥ १२ नलकच्छपुरे श्री मन्नेमि चैत्यालयेऽसिधत् । ग्रन्थोऽयं द्विनवद्वयेक विक्रमार्क समात्यये ।। १३ ६. सिरिचन्दवाररणय रट्ठिएण, जिरणधम्म-करण उक्कठिएण । माहुरकुल-गयण तमीहरेण, विबुहयण सुयण - मरण- घरण -हरेण । + + + णीसेसें सविलक्ख गुरणालएण, मइवर सुपट्ट रगामालएरण७. गारायण देह समुब्भवेरण, मरण-वयरण- काय - रिंगदिय भवेरण | + सिरि वासुव गुरु भायरेण, भव- जलरिगहि-रिगवडरण - कायरेण ।। — त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र -- भविसयत्त कहा प्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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